Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

Previous | Next

Page 987
________________ गा० २१४] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिक्षपकक्रिया-निरूपण ८७९ १३९७. सेसाणि कम्माणि एदेहिं वीचारेहिं अणुमग्गिययाणि । १३९८. अणुमग्गिदे समत्ता एक्कारसमी मूलगाहा भवदि । १३९९. एकारस होति किट्टीए त्ति पदं समत्तं । १४००. एत्तो चत्तारि क्खवणाए त्ति । १४०१. तत्थ पहममूलगाहा । (१६१) किं वेदेतो किट्टि खवेदि किं चावि संछुहंतो वा । संछोहणमुदएण च अणुपुव्वं अणणुपुव्वं वा ॥२१४॥ १४०२ एदिस्से एका भासगाहा । १४०३. तं जहा। तीसरा वीचार है, इसके द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुणित हानिके रूपसे कृष्टियोके उदयकी प्ररूपणा की जाती है। उदीरणा यह चौथा वीचार है, इसके द्वारा प्रयोगसे बलात् अपकर्षण कर उदीयमाण स्थिति और अनुभागका विचार किया जाता है। स्थितिकांडक यह पाँचवाँ वीचार है, इसके द्वारा स्थितिकांडकघातके आयामके प्रमाणका विचार किया जाता है । अनुभागघात यह छठा वीचार है, इसके द्वारा कृष्टिगत अनुभागके प्रतिसमय अपवर्तनाका विचार किया जाता है। स्थितिसत्कर्म यह सातवाँ वीचार है, इसके द्वारा कृष्टिवेदकके सर्व संधियोमें घातसे अवशिष्ट स्थितिके सत्त्वका प्रमाण अन्वेषण किया जाता है। अथवा इसके द्वारा स्थितिके संक्रमणका विचार किये जानेसे इसे स्थितिसंक्रमण-वीचार भी कहते हैं। अनुभागसत्कर्म नामक आठवें वीचारमे चारों संज्वलन कषायोके अनुभागसत्त्वका निर्देश किया गया है। बन्ध नामक नवमें वीचारमें कृष्टिवेदकके सर्व सन्धिगत स्थितिवन्ध और अनुभागबन्धके प्रमाणका विचार किया गया है । बन्ध-परिहाणि नामक दशवें वीचारके द्वारा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धकी क्रमशः परिहाणिका विचार किया जाता है। इस प्रकार उक्त दश वीचारोसे मोहनीय कर्मकी प्ररूपणाका निर्देश सूत्रकारने इस मूलगाथामें पृच्छारूपसे किया है सो आगमानुसार इनका यहाँ विचार करना चाहिए। चर्णिसू०-शेष कर्म भी इन वीचारोके द्वारा अन्वेषणीय हैं। उनके अनुमार्गण कर चकने पर ग्यारहवीं मूलगाथाकी विभाषा समाप्त हो जाती है। इस प्रकार कृष्टियोके विषयमे ग्यारह मूलगाथाएँ हैं, इस पदका अर्थ समाप्त हुआ ॥१३९७-१३९९।। चूर्णिसू०-अब इससे आगे क्षपणामें प्रतिबद्ध चार मूलगाथाओकी समुत्कीर्तना की जाती है । उनमे यह प्रथम मूलगाथा है ।।१४००-१४०१॥ क्या यह क्षपक कृष्टियोंको वेदन करता हुआ क्षय करता है ? अथवा वेदन न कर संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है ? अथवा वेदन और संक्रमण दोनोंको करता हुआ क्षय करता है, कृष्टियोंको क्या आनुपूर्वीसे क्षय करता है, अथवा अनानुपूर्वीसे क्षय करता है ? ॥२१४॥ चूर्णिसू०-इस मूलगाथाकी एक भाष्यगाथा है । वह इस प्रकार है॥१४०२-१४०३॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001 1002 1003 1004 1005 1006 1007 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016 1017 1018 1019 1020 1021 1022 1023 1024 1025 1026 1027 1028 1029 1030 1031 1032 1033 1034 1035 1036 1037 1038 1039 1040 1041 1042 1043