Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 986
________________ ८७८ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार घादिं वेदयदि, एत्थ छव्विहाए वडीए छन्विहाए हाणीए भजिदव्वं । १३८७, एवं चेव दंसणावरणीयस्स जं सव्वधादिं वेदयदि तं णियमा अनंतगुणहीणं । १३८८. जं देसघादिं वेदयदि तं छव्विहाए वड्डीए छव्विहाए हाणीए भजियव्वं । १३८९. एवमेसा दसमी मूलगाहा किट्टीसु विहासिदा समत्ता | १३९०. एत्तो एक्कारसमी मूलगाहा । (१६०) किट्टीकदम्मि कम्मे के वीचारा दु मोहणीयस्स । सेसाणं कम्माणं तहेव के के दु वीचारा ||२१३|| १३९१. एदिस्से भासगाहा णत्थि । १३९२. विहासा । १३९३. ऐसा गाहा पुच्छासुतं । १३९४. तदो मोहणीयस्स पुव्वभणिदं । १३९५ तदो वि पुण इमिस्से गाहाए फस्सकण्णकरणमणु संवण्णेयव्वं । १३९६. ठिदिवाण १ डिदिसंतकम्मेण २ उदएण ३ उदीरणाए ४ ट्ठिदिखंडगेण ५ अणुभागघादेण ६ ट्ठिदिसंतकम्मेण । ७ अणुभागसंतकम्मेण ८ वंघेण ९ बंधपरिहाणीए १० । और छह प्रकारकी हानिके रूपसे भजितव्य है । इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्मकी प्रकृतियोंको यदि सर्वधातिरूपसे वेदन करता है, सो नियमसे अनन्तगुणित हीन रूपसे वेदन करता है । और यदि देशघातिरूपसे वेदन करता है तो दर्शनावरणीय कर्मका अनुभागोदय छह प्रकारकी वृद्धि और छह प्रकारकी हानिसे भजितव्य है ।। १३८२-१३८८।। चूर्णिसू०[0- इस प्रकार यह दशमी मूलगाथा कृष्टियोके विषयमे विभाषिता की गई ।। १३८९॥ चूर्णिसू • (० - अब इससे आगे ग्यारहवीं मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥१३९०॥ संज्चलनकपायरूप कर्मके कृष्टिरूपसे परिणत हो जाने पर मोहनीय कर्म के कौन-कौन वीचार अर्थात् स्थितिघातादि लक्षणवाले क्रियाविशेष होते हैं ? इसी प्रकार ज्ञानावरणादि शेष कर्मों के भी कौन कौन वीचार होते हैं ? ॥ २१३ ॥ चूर्णिसू० - ( सुगम होनेसे ) इस मूलगाथाकी भाष्यगाथा नही है । उक्त मूलगाथा की विभाषा इस प्रकार है - यह मूलगाथा पृच्छासूत्ररूप है । अतएव यद्यपि मोहनीय कर्म - का स्थिति - अनुभागघातादि विषयक सर्व वक्तव्य पहले कहा जा चुका है, तथापि पुनः इस गाथाके अर्थव्याख्यान के अवसर में उक्त विधानोका स्पर्शकर्णकरण अर्थात् कुछ संक्षेप प्ररूपण कर लेना आवश्यक है । यहॉपर ये दश वीचार ज्ञातव्य हैं - १ स्थितिघात, २ स्थितिसत्त्व, ३ उदय, ४ उदीरणा, ५ स्थितिकांडक, ६ अनुभागघात, ७ स्थितिसत्कर्म या स्थितिसंक्रमण ८ अनुभागसत्कर्म, ९ वन्ध और १० वन्धपरिहाणि ॥१३९१-१३९६ ॥ विशेषार्थ-स्थितिघात यह पहला वीचार है, इसमे अन्तर्मुहूर्तप्रमित एक स्थितिकांडकघातकालके द्वारा स्थितिके घातका विचार किया जाता है । स्थितिसत्त्व यह दूसरा वीचार है, इसके द्वारा स्थितियोके सत्त्वका अवधारण किया जाता है । उदय नामका १ वीचारा किरिया वियप्पा ट्रिट्ठदिघादादिलक्खणा | जयघ०

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