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गा० २११ ]
चारित्र मोहक्षपक कृष्टिवेदक क्रिया- निरूपण
(१५७) चरिमो य सुहुमरागो णामा - गोदाणि वेदणीयं च ।
दिवस संतो बंधदि भिण्णमुहुत्तं तु जं सेसं ॥ २९० ॥
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१३६७. विहासा । १३६८. चरिमसमय सुहुमसांपराइयस्स णामा - गोदाणं दिबंधो अंतमुत्तं (अट्ठ मुहुत्ता) । १३६९. वेदणीयस्स द्विदिबंधो वारस मुहुत्ता । १३७०, तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधो अंतोमुहुत्तो ।
१३७१. एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा ।
(१५८) अध सुदमदि- आवरणे च अंतराइए च देसमावरणं । लडी यं वेदयदे सव्वावरणं अलद्धी य ॥ २१९ ॥
१३७२. लद्धीए विहासा । १३७३ जदि सच्चेसिमक्खराणं खओवसमो गदो तदो सुदाचरणं मदिआवरणं च देसघादिं वेदयदि । १३७४ अध एकस्स वि अक्खरस्स दो खओवसमो तदो सुद-मदि -आवरणाणि सव्वधादीणि वेदयदि । १३७५. एवमेदसिं तिन्हं घादिकम्माणं जासि पयडीणं खओवसमो गदो तासि पयडीणं देसघादि
चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मको एक दिवसके अन्तर्गत बाँधता है । शेष जो घातिया कर्म हैं, उन्हें भिन्नमुहूर्त -प्रमाण बाँधता है ॥२१०॥ चूर्णिसू० [0 - उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है - चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके नाम और गोत्र कर्मका स्थितिबन्ध आठ मुहूर्तप्रमाण होता है | वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध वारह मुहूर्तप्रमाण होता है । शेष तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण होता है | ॥ १३६७-१३७०॥
चूर्णिसू०[० - अब इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥ १३७१ ॥ मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्ममें जिनकी लब्धि अर्थात् क्षयोपशमविशेषको वेदन करता है, उनके देशघाति-आवरणरूप अनुभागका वेदन करता है । जिनकी अलब्धि है, अर्थात् क्षयोपशम विशेष सम्पन्न नहीं हुआ है उनके सर्वघाति आवरणरूप अनुभागका वेदन करता है । अन्तराय कर्मका देशघाति - अनुभाग वेदन करता है || २११॥
चूर्णिसू० - 'लब्धि' इस पदकी विभाषा की जाती है - यदि सर्व अक्षरोका क्षयोपशम प्राप्त हुआ है, तो वह श्रुतज्ञानावरण और मतिज्ञानावरणको देशघातिरूपसे वेदन करता है । यदि एक भी अक्षरका क्षयोपशम नही हुआ अर्थात् अवशिष्ट रह गया, तो मति श्रुतज्ञानावरण कर्मोंको सर्वधातिरूपसे वेदन करता है । इसी प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों घातिया कर्मों की जिन प्रकृतियोंका क्षयोपशम प्राप्त हुआ है, उन