Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 982
________________ - ~ ८७४ फसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार पढमकिट्टिचरिमसमयवेदगस्स तिण्हं धादिकम्माणं द्विदिवंधो संखेज्जेहिं वस्ससहस्सेहि परिहाइदूण दसण्हं वस्साणमंतो जादो । १३५६. अथाणुभागबंधो-तिहं घादिकम्माणं किं सव्वघादी देसघादि त्ति ? १३५७. एदेसि घादिकम्माण जेसिमोवट्टणा अत्थि ताणि देसघादीणि बंधदि, जेसिमोबट्टणा णत्थि, ताणि सव्वघादीणि बंधदि । १३५८. ओवट्टणा सण्णा पुव्वं परूविदा। १३५९. एत्तो विदियाए भासगाहाए समुकित्तणा । १३६०. तं जहा । (१५६) चरिमो बादररागो णामा-गोदाणि वेदणीयं च । वस्सस्संतो बंधदि दिवसस्संतो य ज सेसं ॥२०९॥ १३६१. विहासा । १३६२. जहा । १३६३. चरिमसमय-बादरसांपराइयस्स णामा-गोद-वेदणीयाणं हिदिबंधो वासं देसूणं । १३६४. तिण्डं घादिकम्माणं मुहुत्तपुधत्तो द्विदिवंधो। १३६५. एत्तो तदियाए भासगाहाए समुकित्तणा । १३६६. तं जहा । गया है । वह इस प्रकार है-क्रोधकी प्रथम कृष्टिके चरमसमवर्ती वेदकके शेष तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात-सहस्र वर्षों से घटकर दश वर्षों के अन्तर्वर्ती हो जाता है, अर्थात् अन्तर्मुहूर्त कम दश वर्षप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है ॥१३५२-१३५५॥ शंका-तीनों घातिया कर्मोंका अनुभागवन्ध क्या सर्वघाती होता है, अथवा देशघाती होता है ? ॥१३५६॥ समाधान-इन घातिया कर्मोमेसे जिनकी अपवर्तना संभव है, उनका देशघाती अनुभागबन्ध करता है और जिनकी अपवर्तना संभव नहीं है, उनको सर्वघातिरूपसे बॉधता है । अपवर्तना संज्ञाका अर्थ पहले प्ररूपण किया जा चुका है ॥१३५७-१३५८॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ॥१३५९-१३६०॥ चरमसमयवर्ती वादरसाम्परायिक क्षपक नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मको वर्षके अन्तर्गत बाँधता है। तथा शेष जो तीन घातिया कर्म हैं, उन्हें एक दिवसके अन्तर्गत वाँधता है ॥२०९॥ चूर्णिसू०-इस भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-चरमसमयवर्ती वादरसाम्परायिकके नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध कुछ कम एक वर्षप्रमाण होता है। शेष तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध मुहूर्तपृथक्त्वप्रमाण होता है ॥१३६१-१३६४॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ॥१३६५-१३६६॥

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