Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 981
________________ चारित्र मोहक्षपक कृष्टिवेदक क्रिया- निरूपण ८७३ १३४८. इदार्णि सेसाणं गाहाणं सुत्तफासो' कायथ्यो । १३४९. तत्थ ताव गा० २०८ । दसमी मूलगाहा । ( १५४) किट्टीकदम्मि कम्मे के बंधदि के व वेदयदि अंसे । संकामेदि च के के केसु असंकामगो होदि ॥ २०७॥ १३५०. एदिस्से पंच भासगाहाओ । १३५१. तासि समुक्कित्तणा । (१५५) दससु च वस्सस्संतो बंधदि णियमा द सेस अंसे । दु देसावरणीयाई जेसिं ओवट्टणा अस्थि ॥ २०८ ॥ १३५२. एदिस्से गाहाए विहासा । १३५३. एदीए गाहाए तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधो च अणुभागबंधो च णिद्दिट्ठो | १३५४. तं जहा । १३५५. कोहस्स चूर्णिसू० [० - अब शेष गाथाओं का सूत्रस्पर्श करना चाहिए | १३४८ ॥ विशेषार्थ - पूर्व में अर्थरूपसे विभाषित गाथासूत्रोका उच्चारण करके गाथाके पदरूप अवयवोंका शब्दार्थ कर लेनेको सूत्रस्पर्श कहते है । वह सूत्रस्पर्श इस समय करना आवश्यक है । इसका अभिप्राय यह है कि कृष्टि सम्बन्धी जो ग्यारह मूलगाथाएँ हैं - उनमे से प्रारम्भकी नौ गाथाओकी तो विभाषा की जा चुकी है । अन्तिम दो गाथाओकी विभाषा स्थगित कर दी गई थी, सो वह अब की जाती है । चूर्णिसू० - उनमें से यह दशवीं मूलगाया है ॥ १३४९॥ मोहनीय कर्म कृष्टि रूपसे परिणमा देनेपर कौन-कौन कर्मको बाँधता है और कौन-कौन कर्मो के अंशोंका वेदन करता है ? किन किन कर्मोंका संक्रमण करता है और किन किन कर्मोंमें असंक्रामक रहता है, अर्थात् संक्रमण नहीं करता है ? ॥२०७॥ इस मूल गाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली पॉच भाष्य-गाथाएँ हैं । उनकी समुत्कीर्तना इस प्रकार है ।। १३५०-१३५१। क्रोध-प्रथम कृष्टिवेदकके चरम समयमे शेप कर्माशोंकी अर्थात् मोहनीयको छोड़कर शेष तीन घातिया कर्मोकी नियमसे अन्तर्मुहूर्त कम दश वर्षप्रमाण स्थितिका बन्ध करता है । घातिया कर्मोंमें जिन-जिन कर्मोकी अपवर्तना संभव है, उनका देशघातिरूप से ही बन्ध करता है । ( तथा जिनकी अपवर्तना संभव नही है, उनका सर्वघातिरूपसे ही बन्ध करता है | ) || २०८ || चूर्णि सू० - अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है - इस गाथा के द्वारा मोहनीयकर्मको छोड़कर शेष तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध निर्दिष्ट किया १ को सुत्तफासो णाम १ सूत्रस्य स्पर्शः सूत्रस्वर्गः, पुव्वमत्थमुहेण विहासिदाणं गाहासुत्तागमेण्टिमुच्चारणपुरस्सरमवयवत्थपरामरसो सुत्तफासो त्ति भणिद होइ । जयध० ११० "

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