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कसाय पाहुड सुत्त
[ ३ स्थितिविभक्ति ३७९. अण्णाणि पुण दंसणमोहक्खवयस्स अणियट्टिपविट्ठस्स जम्हि द्विदिसंतकम्ममेह दियकम्मस्स हेह्रदो जादं तत्तो पाए अंतोमुहुत्तमेत्ताणि हिदिसंतकम्मट्ठाणाणि लभंति । ३८०. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं द्विदिसंतकम्मट्ठाणाणि सत्तरिसागरोपमकोडाकोडीओ अंतोमुहुत्तूणाओ । ३८१. अपच्छिमेण उव्वेलणकंडएण च ऊणाओ एत्तियाणि हाणाणि ।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम-प्रमाण होती है और इसका सत्त्व तीव्र संक्लेश-परिणामोंसे मिथ्यात्वकर्मका उत्कृष्ट बन्ध करनेवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यावष्टि जीवके प्रथम समयमे पाया जाता है। यह मिथ्यात्वका सर्वोत्कृष्ट प्रथम स्थितिसत्कर्मस्थान है। एक समय कम सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम-प्रमाण बन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टिके दूसग स्थितिसत्कर्मस्थान होता है । दो समय कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण वन्ध करनेवाले मिथ्यादृष्टिके तीसरा स्थितिसत्कर्मस्थान होता है । इस प्रकार एक-एक समय कम करनेपर चौथा, पॉचवॉ आदि स्थान होते जाते है । यह क्रम तब तक निरन्तर जारी रखना चाहिए जबतक कि मिथ्यात्वका सर्वजघन्य स्थितिवन्ध प्राप्त न हो जाय । मिथ्यात्वकर्मके सर्वजघन्य स्थितिवन्धका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवे भागसे कम एक सागरोपम है और वह अतिहीन संक्लेश-परिणामवाले एकेन्द्रिय जीवके पाया जाता है। कहनेका अभिप्राय यह है कि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लगाकर सर्वजघन्य स्थितिवन्ध तक एक-एक समय कम करनेपर जितने स्थितिके भेद होते है, उतने ही मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मस्थान होते है । इनका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम एक सागरोपमसे हीन सत्तर सागरोपमके जितने समय होते है, उतना है।
ये उपर्युक्त स्थितिसत्कर्मस्थान मिथ्यात्वकर्मका बन्ध करनेवाले जीवोके पाये जाते हैं । इनके अतिरिक्त ऐसे और भी मिथ्यात्वके स्थितिसत्कर्मस्थान है, जो कि मिथ्यात्वकर्मके वन्धसे रहित, किन्तु मिथ्यात्वकी सत्ता रखनेवाले सम्यग्दृष्टि जीवके पाये जाते है । उनका निरूपण करनेके लिए यतिवृपभाचार्य उत्तरसूत्र कहते हैं -
चूर्णिम् ०-इनके अतिरिक्त मिथ्यात्वकर्मके अन्य भी स्थितिसत्कर्मस्थान होते है, जो कि अनिवृत्तिकरणमे प्रविष्ट हुए दर्शनमोह-क्षपकके जिस समयमे मिथ्यात्वका स्थितिसत्कर्म एकेन्द्रिय जीवके वन्ध-प्रायोग्य स्थितिसत्कर्मके नीचे हो जाता है, उस समय पाये जाते है । वे अन्तर्मुहूर्तके जितने समय है, उतने प्रमाण होते हैं ॥३७९॥ _____ अव सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्वप्रकृति के स्थितिसत्कर्म स्थान कहते है
चूर्णिसू०-सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों कर्मोंके स्थितिसत्कर्मस्थान अन्तर्मुहूर्तसे कम सत्तरकोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण होते है । तथा अन्तिम उद्वेलनाकांडकसे भी न्यून होते हैं ॥३८०-३८१।।
विशेपार्थ-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकर्मके स्थितिसत्त्वस्थान केवल अन्तर्मुहर्त