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कसाय पाहुड सुन्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार
२६५. एतो डि दिसंतकम्मे च अणुभागसंतकम्मे च तदियगाहा कायव्या ।
तं जहा
(७४) संकामगपट्टवगस्स पुव्ववद्धाणि मज्झिमट्ठिदीसु । साद- सुहणाम - गोदा तहाणुभागेसुदुक्कस्सा ॥१२७॥
२६७. मज्झिमट्ठिदीसु त्ति अणुक्कस्स- अजहण्णट्ठिदीसु त्ति भणिदं होड़ । २६८. साद-सुमणाम-गोदा तहाणुभागे सुदुक्कस्सा त्तिण चेदे ओघुकस्सा, तस्समयपाओग्ग-उक्कस्सगा एदे अणुभागेण ।
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विशेषार्थ - अन्तरकरणके दूसरे समय से लेकर एक समय कम आवली कालके भीतरी अवस्थित जीव जिन वेद्यमान या अवेद्यमान प्रकृतियोंकी प्रथम स्थितिको गलाता है, उनक सत्ता तो प्रथमस्थिति और द्वितीयस्थिति इन दोनोमें ही पाई जाती है । किन्तु वह नि कर्म - प्रकृतियोको नहीं गलाता है, उनकी सत्ता द्वितीयस्थितिमे पाई जाती है । जयधवलाकार 'झी ट्ठदिकम्मंसे' पदको, ' अथवा ' कहकर और उसे सप्तमी विभक्ति मानकर इस प्रकार भी अर्थ करते हैं कि वेद्यमान किसी एक वेद और किसी एक संज्वलनकषायके अतिरिक्त अवेद्यमान शेष ग्यारह प्रकृतियोके समयोन आवलीप्रमाण प्रथमस्थितिके क्षीण हो जानेपर जिन कर्मों का वेदन करता है, वे तो दोनो ही स्थितियोंमें पाये जाते हैं, किन्तु जिन्हे वेदन नहीं करता है वे उसकी द्वितीयस्थितिमे ही पाये जाते हैं । इस प्रकार ये दो भाष्यगाथाएँ मूलगाथा पूर्वार्ध का अर्थ- व्याख्यान करती हैं ।
अव मूलगाथाके उत्तरार्धका अर्थ कहने के लिए चूर्णिकार उत्तरसूत्र कहते हैंचूर्णिसू० - इससे आगे स्थितिसत्त्व और अनुभागसत्त्व के विषयमे तीसरी भाष्यगाथाको कहना चाहिए । वह इस प्रकार है || २६५-२६६॥
संक्रमण प्रस्थापक के पूर्व बद्ध कर्म मध्यम स्थितियोंमें पाये जाते हैं । तथा अनुभागों में सातावेदनीय, शुभ नामकर्म और उच्चगोत्र उत्कृष्ट रूप से पाये जाते हैं ॥ १२७॥ चूर्णिसू० - यहॉ 'मध्यम स्थितियो में' इस पदका अर्थ ' अनुत्कृष्ट- अजघन्य स्थितियो - में' ऐसा कहा गया समझना चाहिए । 'सातावेदनीय, शुभ नामकर्म प्रकृतियाँ और उच्चगोत्र कर्म, ये अनुभागोमे उत्कृष्ट पाये जाते हैं' गाथाके इस उत्तरार्धमें जो 'उत्कृष्ट' पद है, उससे ये सातावेदनीय आदि कर्म अनुभागकी अपेक्षा ओघरूपसे उत्कृष्ट नहीं ग्रहण करना चाहिए, किन्तु आदेशकी अपेक्षा तत्समय प्रायोग्य उत्कृष्ट ग्रहण करना चाहिए ।। २६७-२६८॥ विशेषार्थ - गाथामे सातावेदनीय आदि जिन पुण्य - प्रकृतियोके अनुभागको 'उत्कृष्ट ' बताया गया है, उसका स्पष्टीकरण इस चूर्णिसूत्रके द्वारा किया गया है । जिसका अभिप्राय यह है कि उत्कृष्ट अनुभाग दो प्रकारका होता है ओघ - उत्कृष्ट और आदेश उत्कृष्ट । यहाँ पर ओघ - उत्कृष्ट अनुभाग संभव नहीं है, क्योकि वह तो चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक संत होता है, अतः यहॉपर अनिवृत्तिकरण- परिणामोंके द्वारा संभव ' तत्समय - प्रायोग्य'
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