Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 966
________________ ८५८ . कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । ११७३. कोहस्स विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ संखेज्जगुणाओ । ११७४. पदेसग्गस्स वि एवं चेव अप्पाबहुअं । ११७५. कोहस्स विदियकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमहिदी तिस्से पहमट्टिदीए आवलिय-पडिआवलियाए सेसाए आगालपडिआगालो वोच्छिण्णो । ११७६. तिस्से चेव पढमहिदीए समयाहियाए आवलियाए सेसाए ताहे कोहस्स विदियकिट्टीए चरिमसमयवेदगो। ११७७. ताधे संजलणाणं द्विदिबंधो वे मासा वीसं च दिवसा देसूणा । ११७८. तिण्हं धादिकस्माणं द्विदिवंधो वासपुधत्तं । ११७९: सेसाणं कम्माणं ठिदिवंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ११८०. संजलणाणं हिदिसंतकम्मं पंच वस्साणि चत्तारि मासा अंतोमुहुत्तूणा । ११८१. तिण्डं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्म संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ११८२, णामा-गोद-वेदणीयाणं ठिदिसंतकस्ममसंखेज्जाणि वस्साणि । ११८३. तदो से काले कोहस्स तदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियण पढमहिदि करेदि । ११८४. ताधे कोहस्स तदियसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीणमसंखेज्जा भागा उदिण्णा । ११८५. तासिं चेव असंखेज्जा भांगा वज्झंति । ११८६. जो विदियकिहि वेदयमाणस्स विधी सो चेव विधी तदियकिट्टि वेदयमाणस्स वि कायव्यो । लोभकी तृतीय संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक है। इससे क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिमें अन्तरकृष्टियाँ संख्यातगुणी हैं। इन अन्तरकृष्टियोके प्रदेशाग्रका भी अल्पवहुत्व इसी प्रकार जानना चाहिए ॥११६१-११७४।। चूर्णिसू०-क्रोधकी द्वितीय कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपकके जो प्रथम स्थिति है, उस प्रथम स्थितिमे आवली और प्रत्यावलीकालके शेष रह जानेपर आगाल और प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते है। उस ही प्रथमस्थितिमे एक समय अधिक आवलीके शेप रहनेपर उस समय क्रोधकी द्वितीय कृष्टिका चरमसमयवर्ती वेदक होता है। उस समयमे चारो संज्वलन कषायोका स्थितिवन्ध दो मास और कुछ कम बीस दिवसप्रमाण है । शेप तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। शेष कर्मोंका स्थितिवन्ध संख्यात सहस्र वर्षप्रमाण है। उस समय चारो संचलनोंका स्थितिसत्त्व पॉच वर्प और अन्तर्मुहूर्त कम चार मासप्रमाण है। शेष तीन घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्षप्रमाण है । नाम, गोत्र और बेदनीय कर्मका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्पप्रमाण है ॥११७५-११८२॥ चूर्णिसू०-तदनन्तर समयमे क्रोधकी तृतीय कृष्टिसे प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके प्रथमस्थितिको करता है। उस समयमे क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियोके असंख्यात वहुभाग उदीर्ण होते हैं और उन्हींके असंख्यात बहुभाग बॅधते है । ( इतना विशेष है कि उदीर्ण होनेवाली अन्तरकृष्टियोसे बँधनेवाली अन्तरकृष्टियोंका परिमाण विशेष हीन होता है।) नो विधि द्वितीय कृष्टिको वेदन करनेवालेकी कही गई है, वही विधि तृतीय कृष्टिको वेदन करनेवालेकी भी प्ररूपणा करना चाहिए ॥११८३-११८६॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001 1002 1003 1004 1005 1006 1007 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016 1017 1018 1019 1020 1021 1022 1023 1024 1025 1026 1027 1028 1029 1030 1031 1032 1033 1034 1035 1036 1037 1038 1039 1040 1041 1042 1043