Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

Previous | Next

Page 965
________________ गा० २०६ ] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण ८५७ ११५७. जहा कोहस्स पढमकिट्टि वेदयमाणो चदुहं कसायाणं पढमकिट्टीओ बंधदि किमेवं चेव कोधस्स विदियकिट्टि वेदेमाणो चदुण्हं कसायाणं विदियकिट्टीओ बंधदि, आहो ण, वत्तव्वं ? ११५८. किथ खु। ११५९. समासलक्षणं भणिस्सामो। ११६०. जस्स जं किट्टि वेदयदि तस्स कसायस्स तं किट्टि बंधदि, सेसाणं कसायाणं परमकिट्टीओ बंधदि । ११६१. कोधविदियकिट्टीए पढमसमए वेदगस्स एक्कारससु संगहकिट्टीसु अंतरकिट्टीणमप्पाबहुअं वत्तइस्सामो। ११६२. तं जहा । ११६३. सव्वत्थोवाओ माणस्स पडमाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ। ११६४. विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ। ११६५ तदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । ११६६. कोहस्स तदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ। ११६७. मायाए पडमाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ। ११६८. विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । ११६९. तदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसा. हियाओ। ११७०. लोभस्स पढमाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । ११७१. विदियाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । ११७२. तदियाए लोभकी द्वितीय और तृतीय कृष्टिको प्राप्त होता है । लोभकी द्वितीय कृष्टिसे प्रदेशाग्र लोभकी तृतीय कृष्टिको ही प्राप्त होता है ।।११४५-११५६।। शंका-जिस प्रकार क्रोधकी प्रथम कृष्टिका वेदन करनेवाला चारो कपायोकी प्रथम कृष्टियोको बाँधता है, उसी प्रकार क्रोधकी द्वितीय कृष्टिका वेदन करनेवाला क्या चारो ही कषायोकी द्वितीय कृष्टियोको बाँधता है, अथवा नही बॉधता है ? इसका उत्तर क्या है, कहिए १ ॥११५७-११५८॥ समाधान-उक्त आशंकाका संक्षेप समाधान कहेगे-जिस कषायकी जिस कृष्टिका वेदन करता है उस कषायकी उस कृष्टिको बाँधता है । तथा शेप कषायोकी प्रथम कृष्टियोको बॉधता है ।।११५९-११६०॥ चर्णिस०-अब क्रोधकी द्वितीय कृष्टिको वेदन करनेवाले क्षपकके प्रथम समयमे दिखाई देनेवाली ग्यारह संग्रहकृष्टियोमे अन्तरकृष्टियोके अल्पबहुत्वको कहेगे। वह इस प्रकार है-मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ सबसे कम हैं। इससे मानकी द्वितीय संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक है। इससे मानकी तृतीय संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक है । इससे क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । इससे मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टि में अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक हैं। इससे मायाकी द्वितीय संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक हैं। इससे मायाकी तृतीय संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक हैं। इससे लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेप अधिक हैं । इससे लोभकी द्वितीय संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक हैं। इससे १ कथ खलु स्यात् , कोन्वत्र निर्णय इति १ जयध० १०८

Loading...

Page Navigation
1 ... 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001 1002 1003 1004 1005 1006 1007 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016 1017 1018 1019 1020 1021 1022 1023 1024 1025 1026 1027 1028 1029 1030 1031 1032 1033 1034 1035 1036 1037 1038 1039 1040 1041 1042 1043