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गा० २०६ ]
चारित्र मोहक्षपक- कृष्टिवेदक क्रिया- निरूपण
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विट्टी व दो आवलियबंधे समयूणे मोत्तण उदयावलियपविद्धं च मोत्तूण सेसाओ विदियकट्टीए अंतर किट्टीओ संछुग्भमाणीओ संछुद्धाओ ।
१२९८ तम्हि चेव लोभसंजणस्स द्विदिबंधो अंतोमुहुत्तं । १२९९. तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधो अहोरत्तस्स अंतो । १३०० णामा- गोद-वेदणीयाणं बादरसांपराइयस्स जो चरिमो द्विदिबंधो सो संखेज्जेहिं वस्ससहस्सेहिं हाइदुण वस्सस्स अंतो जादो । १३०१ चरिमसमयवादर सांपराइयस्स मोहणीयस्स द्विदिसंत कम्ममंतोमुहूतं । १३०२. तिन्हं घादिकम्माणं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । १३०३. णामा- गोद-वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्पमसंखेज्जाणि वस्त्राणि ।
१३०४. से काले पढमसमयसुहुमसांपराइयो जादो । १३०५ ताधे चेव सुहुमसांप इयकिट्टीणं जाओ द्विदीओ तदो ट्ठिदिखंडयमा गाइदं । १३०६. तदो पदेसग्गमोकड्डियूण उदये थोवं दिण्णं । १३०७. अंतोमुहुत्तद्धमेत्तमसंखेज्जगुणाए सेडीए [ देदि ] । १३०८. गुणसेढिणिक्खेवो सुहुमसांपराइयद्वादो विसेयुत्तरो । १३०९. गुणसे डिसीस गादो जा अणंतरद्विदी तत्थ असंखेज्जगुणं । १३१० तत्तो विसेसहीणं ताव जाव पुव्वसमये अंतरमासी, तस्स अंतरस्स चरिमादो अंतरद्विदीदो त्ति । १३११द्वितीय कृष्टि भी एक समय कम दो आवलीप्रमित नवकबद्ध समयप्रबद्धोको छोड़कर, तथा उदयावली - प्रविष्ट द्रव्यको छोड़कर शेप द्वितीयकृष्टिकी संक्रम्यमाण अन्तरकृष्टिया सक्षुब्ध अर्थात् संक्रमणको प्राप्त हो जाती हैं ।। १२९४-१२९७॥
चूर्णिसू० 0 - उस ही समय मे संज्वलनलोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है । शेप तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तः अहोरात्र अर्थात् कुछ कम एक दिन-रात प्रमाण होता है । नाम, गोत्र और वेदनीय, इन तीन कर्मोंका बादरसाम्परायिकके जो चरम स्थितिबन्ध था, वह संख्यात वर्षसहस्रो से घटकर अन्तः वर्ष अर्थात् कुछ कम एक वर्षमात्र रह जाता है । चरमसमयवर्ती वादरसाम्परायिकके मोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्त है । शेष तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्ष है । नाम, गोत्र और वेदनी इन तीन अघातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्ष है ।। १२९८-१३०३॥
चूर्णि सू० - तदनन्तर कालमे वह प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकसंगत हो जाता है । उस ही समयमे सूक्ष्मसाम्परायिककी जो अन्तर्मुहूर्त प्रमित स्थितियाँ हैं, उनसे स्थितिकांडकरूपसे घात करनेके लिए ग्रहण करता है, अर्थात् उन स्थितियो के संख्यातवें भागको ग्रहण करके स्थितिकांडकघात प्रारम्भ करता है । तदनन्तर सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोकी उत्कीर्यमाण और अनुत्कीर्यमाण स्थितियोसे प्रदेशाग्रका अपकर्षण कर उदयमे अल्प प्रदेशाको देता है । पुनः अन्तर्मुहूर्तकाल तक असंख्यातगुणित श्रेणीसे देता है । गुणश्रेणिनिक्षेपका आयाम सूक्ष्मसाम्परायककालसे विशेष अधिक है । गुणश्रेणिशीर्पसे जो अनन्तर स्थिति है उसमें असंख्यात - गुणित प्रदेशाको देता है । इससे आगे अन्तरस्थितियों में उत्तरोत्तर विशेष - हीन क्रमसे प्रदेशाय तब तक देता चला जाता है, जब तक कि पूर्व समयमे जो अन्तर था उस अन्तरकी