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गा० २०६] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण
१२३८. कोहस्स पढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ थोवाओ । १२३९. कोहे संछुद्ध माणस्स पहमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ। १२४०. माणे संछुद्धे मायाए पढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । १२४१. मायाए संछुद्धाए लोभस्स पढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ विसेसाहियाओ। १२४२. सुहुपसांपराइयकिट्टीओ जाओ पहमसमये कदाओ ताओ विसेसाहियाओ। १२४३. एसो विसेसो अणंतराणंतरेण संखेज्जदिभागो । शेष सर्व संग्रहकृष्टियोके कृष्टिकरणकालमें समुपलब्ध आयामसे संख्यातगुणित आयामवाली जानना चाहिए । इसका कारण यह है कि मोहनीयकर्मका सर्व द्रव्य इसके आधाररूपसे ही परिणमन करनेवाला है। अथवा जैसे लक्षणवाली क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि अपूर्व स्पर्धकोके अधस्तनभागमे अनन्तगुणित हीन की गई थी, उसी प्रकारके लक्षणवाली यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि भी लोभकी तृतीय बादरसाम्परायिक कृष्टिके अधस्तनभागमे अनन्तगुणित हीन की जाती है । अथवा जिस प्रकार क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि जघन्य कृष्टिसे लगाकर उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त अनन्तगुणी होती गई थी, उसी प्रकारसे यह सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि भी अपनी जघन्यकृष्टिसे लगाकर उत्कृष्ट कृष्टि तक अनन्तगुणित होती जाती है। यहाँ चूर्णिकारने जिस किसी भी कृष्टिके साथ सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकी समानता न बताकर क्रोधकी प्रथम कृष्टिके साथ बतलाई, उसका कारण सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिका आयाम विशेष-बतलाना है ।
अब चूर्णिकार इसी सूक्ष्मसाम्परायिक-कृष्टिके आयामविशेष-जनित माहात्म्यको वतलानेके लिए अल्पबहुत्वका कथन करते है
चूर्णिसू०-क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियाँ सबसे कम है। (क्योंकि, उनके आयामका प्रमाण तेरह-वटे चौवीस (३३) है ।) क्रोधके संक्रमित होनेपर अर्थात् क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिको मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे प्रक्षिप्त करनेपर मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । (क्योंकि, उनका प्रमाण सोलह घटे चौबीस (३१ ) है।) मानके संक्रमित होनेपर मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तर कृष्टियाँ विशेप अधिक है । (उनका प्रमाण उन्नीस बटे चौवीस (३४) है ।) मायाके संक्रमित होनेपर लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक है । ( क्योकि उनका प्रमाण वाईस बटे चौबीस (३४) है।) जो सूक्ष्मसाम्परायिक-कृष्टियाँ प्रथम समयमे की गई है वे विशेप अधिक हैं। (क्योकि उनके आयामका प्रमाण चौवीस वटे चौवीस (३४) है । ) यह विशेष अनन्तर अनन्तररूपसे संख्यातवें भाग है ॥१२३८-१२४३॥
विशेषार्थ-इस उपयुक्त अल्पबहुत्वमे क्रोधादि कपायोकी प्रथम संग्रहकृष्टि-सम्बन्धी अन्तरकृष्टियोंकी हीनाधिकता बतलाने के लिए जो अंक संख्या दी गई है, उसका स्पष्टीकरण यह है कि प्रदेशवन्धकी अपेक्षा आये हुए समयप्रवद्धके द्रव्यका जो पृथक्-पृथक् कर्मोंमे विभाग होता है, उसके अनुसार मोहनीय कर्मके हिस्सेमें जो भाग आता है, उसका भी