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गा० २०६] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदक-निरूपण ताच दुचरिमसमयअविणट्ठकोहपटमसंगहकिट्टि त्ति । ११२८. एदेण सव्वेण तिचरिमसमयमेत्तीओ सवकिट्टीसु पढम-विदियसमयवेदगस्स कोधस्स पहमकिट्टीए अवज्झमाणियाणं किट्टीणमसंखेज्जदिभागो।
११२९. कोहस्स पडमकिट्टि वेदयमाणस्स जा पहमट्ठिदी तिस्से पढमहिदीए समयाहियाए आवलियाए सेसाए एदम्हि समये जो विही, तं विहिं वत्तहस्सामो । ११३०. तं जहा । ११३१. ताधे चेव कोहस्स जहण्णगो डिदिउदीरगो [१] । ११३२. कोहपडमकिट्टीए चरिमसमयवेदगो जादो [२] । ११३३. जा पुचपवत्ता संजलणाणुभागसंतकम्मस्स अणुसमयमोवट्टणा सा तहा चेव [३] । ११३४. चदुसंजलणाणं डिदिबंधो वे मासा चत्तालीसं च दिवसा अंतोमुहुत्तणा [४] । ११३५. संजलणाणं द्विदिसंतकम्मं छ वस्साणि अट्ठ च मासा अंतोमुहुत्तूणा [५] । ११३६ तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिवंधो दस वस्साणि अंतोमुहुत्तूणाणि [६] ११३७. धादिकम्माणं डिदिसंतकम्मं संखेन्जाणि वस्साणि [७] । ११३८. सेसाणं कम्माणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि [८] ।
११३९. से काले कोहस्स विदियकिट्टीए पदेसग्गमोकड्डियूण कोहस्स पहमद्विदि ___अब कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे लगाकर निरुद्ध प्रथम संग्रहकृष्टिके विनाश करनेके कालके द्विचरम समय तक विनष्ट की गई समस्त कृष्टियोका प्रमाण बतलाते हैं
चूर्णिसू०- इस सर्व कालके द्वारा जो त्रिचरम समयमात्र कृष्टियाँ (विनष्ट की जाती) हैं, वे सर्व कृष्टियोमें प्रथम और द्वितीय समयवेदकके क्रोधकी प्रथम कृष्टिकी अबध्यमान कृष्टियोके असंख्यातवें भागमात्र है ॥११२८॥
विशेषार्थ-प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदकके क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिके ऊपर और नीचे अवस्थित कृष्टियाँ अबध्यमान कृष्टियाँ कहलाती हैं।
चूर्णिसू०-क्रोधकी प्रथमकृष्टिका वेदन करनेवालेकी जो प्रथमस्थिति है, उस प्रथमस्थितिमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर इस समयमे जो विधि होती है, उस विधिको कहेंगे। वह इस प्रकार है-उस ही समयमे क्रोधकी जघन्य स्थितिका उदीरक होता है (१) और क्रोधकी प्रथम कृष्टिका चरम समयवेदक होता है (२)। संज्वलनचतुष्कके अनुभागसत्त्वकी जो पूर्व-प्रवृत्त अनुसमय अपवर्तना है, वह उसी प्रकारसे होती रहती है (३) । चारो संज्वलनोका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम दो मास और चालीस दिवसप्रमाण होता है (४)। चारों संज्वलनोका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्त कम छह वर्ष और आठ मासप्रमाण होता है (५) । शेष तीन घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध अन्तर्मुहूर्त कम दश वर्षप्रमाण होता है (६)। घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यात वर्षप्रमाण होता है (७)। शेष कर्मोंका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्षप्रमाण होता है (८) ॥११२९-११३८॥
चूर्णिसू०-तदनन्तर समयमे क्रोधकी द्वितीय कृष्टिके प्रदेशाग्रको अपकर्पणकर क्रोधकी प्रथमस्थितिको करता है । उस समय क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे सत्त्वरूप जो दो समय कम दो