Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 961
________________ ८५३ गा० २०६] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण उवसंदरिसणा' । ११००. बज्झमाणियाणं जं पढम किट्टीअंतरं, तत्थ णत्थि । ११०१. एवमसंखेज्जाणि किट्टीअंतराणि अधिच्छिदूण । ११०२. किट्टीअंतराणि अंतरद्वदाए असंखेज्जाणि पलिदोवमपडमवग्गमूलाणि । ११०३. एत्तियाणि किट्टीअंतराणि गंतूण अपुव्वा किट्टी णिव्वत्तिज्जदि । ११०४. पुणो वि एत्तियाणि किट्टीअंतराणि गंतूण अपुव्वा किट्टी णिव्वत्तिज्जदि । ११०५. बज्झमाणयस्स पदेसग्गस्स णिसेगसेढिपरूवणं, वत्तइस्सामो। ११०६. तत्थ जहण्णियाए किट्टीए बज्झमाणियाए बहुअं। ११०७. विदियाए किट्टीए विसेसहीणमणंतभागेण । ११०८. तदियाए विसेसहीणमणंतभागेण । ११०९. चउत्थीए विसेसहीणं। १११०. एवमणंतरोवणिधाए ताव विसेसहीणं जाव अपुवकिट्टिमपत्तो त्ति । ११११. अपुवाए किट्टीए अणंतगुणं । १११२. अपुव्वादो किट्टीदो जा अणंतरकिट्टी, तत्थ अणंतगुणहीणं । १११३, तदो पुणो अणंतभागहीणं । १११४. एवं सेसासु सव्वासु । समाधान-उक्त शंकाका स्पष्टीकरण यह है-बध्यमान संग्रहकृष्टियोका जो प्रथम कृष्टि-अन्तर है, वहॉपर अपूर्वकृष्टियोंको नहीं रचता है। इस प्रकार असंख्यात कृष्टि-अन्तरालोंको लॉघकर आगे अभीष्ट कृष्टि-अन्तरालमे अपूर्व कृष्टियोको रचता है। अन्तररूपसे प्रवृत्त ये कृष्टि-अन्तराल असंख्यात पल्योपमके प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । इतने कृष्टि-अन्तरालोंको लॉधकर अपूर्व कृष्टि रची जाती है । पुन: इतने ही अर्थात् असंख्यात कृष्टि-अन्तरालोको उल्लंघन कर दूसरी अपूर्वकृष्टि रची जाती है। ( इस प्रकार असंख्यात पल्योपमके प्रथम वर्गमूलप्रमाण असंख्यात कृष्टि-अन्तरालोको छोड़-छोड़कर तृतीय-चतुर्थ आदि अपूर्व कृष्टिकी रचना होती है। और यह क्रम तव तक चला जाता है जब तक कि अन्तिम अपूर्वकृष्टि निष्पन्न होती है ॥१०९९-११०४॥ चूर्णिसू०-अव बध्यमान प्रदेशाग्रके निषेकोकी श्रेणिप्ररूपणाको कहेगे। उनमेसे बध्यमान जघन्य कृष्टिमे बहुत प्रदेशाग्र देता है । द्वितीय कृष्टिमे अनन्तवें भागसे विशेष हीन प्रदेशाग्र देता है। तृतीय कृष्टिमे अनन्तवें भागसे विशेष हीन प्रदेशाग्र देता है। चतुर्थ कृष्टिमे अनन्तवे भागसे विशेष हीन प्रदेशाग्र देता है । इस प्रकार अनन्तरोपनिधारूप श्रेणीके क्रमसे विशेष हीन, विशेष हीन प्रदेशाग्र अपूर्वकृष्टिके प्राप्त होने तक दिया जाता है । पुनः अपूर्वकृष्टिमे अनन्तगुणा प्रदेशाग्र दिया जाता है । अपूर्वकृष्टिसे जो अनन्तरकृष्टि है, उसमे अनन्तगुणा हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। तदनन्तर प्राप्त होनेवाली कृष्टिमे अनन्त भागहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । इसी प्रकार शेष सर्वकृष्टियोमें जानना चाहिए ॥११०५-१११४॥ चूर्णिसू०-जो संक्रम्यमाण प्रदेशाग्रसे अपूर्वकृष्टियॉ रची जाती है, वे दो अवकाशो अर्थात् स्थलोपर रची जाती हैं। यथा-कृष्टि-अन्तरालोंमे भी और संग्रहकृष्टि-अन्तरालोमे भी १ एत्तियाणि किटी अतराणि उल्लघियूण पुणो एत्तियमेत्तेसु किट्टी अतरेसु तासि णिवत्ती होटि त्ति एदस्स अत्यविसेसस्स फुडीकरणमुवसंदरिसणा णाम | जयध०

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