Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 959
________________ गा० २०६ ] चारित्रमोहक्षपक - कृष्टिवेदकक्रिया निरूपण ८५१ गुणहीणा । १०७५. बंधे उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा । १०७६. एवं सव्विस्से किट्टवेगा । १०७७, परमसमये बंधे जहणिया किट्टी तिव्वाणुभागा । १०७८. उदये जहणिया किट्टी अनंतगुणहीणा । १०७९. विदियसमये बंधा जहण्णिया किट्टी अणंतगुणहीणा । १०८०. उदये जहण्णिया अनंतगुणहीणा । १०८१. एवं सव्विस्से किट्टीवेदगद्धाए । १०८२. समये समये णिव्वग्गणाओ जहण्णियाओ चिय । १०८३. एसा कोही परूवणा । १०८४. किट्टीणं पढमसमयवेदगस्स माणस्स पडमाए संगहकिट्टीए किट्टीणमसंखेज्जा भागा वज्यंति । १०८५. सेसाओ संगह किट्टीओ ण बज्झति । १०८६. एवं मायाए । १०८७. एवं लोभस्स वि । होनेवाली उत्कृष्ट क्रोधकृष्टि अनन्तगुणी हीन अनुभागवाली है । इसी प्रकार अर्थात् जिस प्रकारसे प्रथम और द्वितीय समय में बन्ध और उदयकी अपेक्षा क्रोधकृष्टिका अल्पबहुत्वरूपसे अनुभाग कहा है, उसी प्रकार सर्वं कृष्टि वेदककालमें कृष्टियोंके अनुभागका हीनाधिक क्रम जानना चाहिए || १०७२-१०७६॥ अब बध्यमान तथा उदयको प्राप्त होनेवाली कृष्टियोका अनुभागसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहते हैं— चूर्णिसू० -- प्रथम समय में बन्धमे अर्थात् बध्यमानकालमे बॅधनेवाली जघन्य क्रोधकृष्टि तीव्र अनुभागवाली है और उदयमें प्रवेश करनेवाली जघन्य क्रोधकृष्टि अनन्तगुणी हीन अनुभागवाली है । द्वितीय समय में बध्यमान जघन्य क्रोधकृष्टि अनन्तगुणी हीन अनुभागवाली है और उदयमे प्रवेश करनेवाली जघन्य क्रोधकृष्टि अनन्तगुणी हीन अनुभागवाली है । इसी प्रकार सम्पूर्ण कृष्टिवेदककालमें बन्ध और उदयकी अपेक्षा जघन्य कृष्टियोका अनुभागसम्बन्धी अल्पबहुत्व जानना चाहिए । समय- समयमे अर्थात् कृष्टिवेदनकालमें प्रतिसमय जघन्य भी निर्वर्गणाएँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हीन अनुभागवाली होती हैं । ( बध्यमान और उदीयमान कृष्टियोंके अनन्तगुणित हानिके रूपसे प्राप्त होनेवाले अपसरण विकल्पोंको निर्वर्गणा कहते हैं ।) यह सब संज्वलनक्रोधसम्बन्धी प्रथम संग्रहकृष्टिकी जघन्य-उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा प्ररूपणा की गई है ॥ १०७७-१०८३॥ चूर्णिसू० - कृष्टियोका प्रथम समयमें वेदन करनेवाले क्षपकके संज्वलनमानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें कृष्टियोंके असंख्यात बहुभाग बँधते हैं। शेष संग्रहकृष्टियाँ नहीं बँधती हैं । इसी प्रकार संज्वलनमाया और संज्वलनलोभकी भी अर्थात् प्रथम संग्रहकृष्टिमें कृष्टियोके असंख्यात बहुभाग बँधते हैं नहीं बँधती हैं ।। १०८४-१०८७॥ प्ररूपणा जानना चाहिए, और शेष संग्रहकृष्टियाँ

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