Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 957
________________ गा० २०६] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण (१५२) किट्टीकदम्मि कम्मे णामा-गोदाणि वेदणीयं च । वस्सेसु असंखेज्जेसु सेसगा होति संखेजा ॥२०५।। । १०५४. विहासा । १०५५. किट्टीकरणे णिट्ठिदे किट्टीणं पडमसमयवेदगस्स णामा-गोद-वेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि । १०५६. मोहणीयस्स डिदिसंतकम्ममट्ट वस्साणि । १०५७. तिण्हं धादिकम्माणं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । १०५८. एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । (१५३) किट्टीकदमि कम्म सादं सुहणाममुचगोदं च । बंधदि च सदसहस्से द्विदिमणुभागेसुदुकस्सं ॥२०६॥ १०५९. विहासा । १०६०. किट्टीणं पढमसमयवेदगस्स संजलणाणं ठिदिबंधो चत्तारि मासा । १०६१. णाया-गोद-वेदणीयाणं तिण्हं चेव घादिकम्माणं ठिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । १०६२. णामा-गोद-वेदणीयाणमणुभागबंधो तस्समयउक्कस्सगो। मोहनीयकर्मके कृष्टिकरण कर देने पर नाम, गोत्र और वेदनीय ये तीन कर्म असंख्यात वर्षावाले स्थितिसत्त्वोंमें पाये जाते हैं। शेष चार घातिया कर्म संख्यात वर्षप्रमित स्थितिसत्त्वरूप पाये जाते हैं ॥२०५॥ चूर्णिसू०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-कृष्टिकरणके निष्पन्न होनेपर प्रथम समयमें कृष्टियोका वेदन करनेवाले जीवके नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन कर्मोंका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण है । मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व आठ वर्षप्रमाण है । शेप तीन घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यात सहस्र वर्षप्रमाण है ॥१०५४-१०५७॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है।।१०५८॥ मोहनीयकर्मके कृष्टिकरण कर देनेपर वह कृप्टिवेदक क्षपक सातावेदनीय, यशःकीर्तिनामक शुभनायकर्म और उच्चगोत्र ये तीन अवातिया कर्म संख्यात शतसहस्र वर्पप्रमाणमें स्थितिको बाँधता है। तथा वह कृष्टिवेदक इन तीनों कर्मोंके स्वयोग्य उत्कृष्ट अनुभागको वाँधता है ।।२०६॥ चूर्णिस०-उक्त भाष्यगाथाकी विभापा इस प्रकार है-कृष्टियोके प्रथम समयमें वेदन करनेवाले क्षपकके चारो संज्वलनकपायोका स्थितिवन्ध चार मास है। नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मोंका तथा शेष तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात सहस्र वर्ष है । नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीनो अघातिया कर्मोंका अनुभागबन्ध तत्समय-उत्कृष्ट है, अर्थात् उस प्रथमसमयवर्ती कृष्टिवेदक क्षपकके यथायोग्य जितना उत्कृष्ट अनुभागवन्ध होना चाहिए, उतना होता है ॥१०५९-१०६२॥ १०७

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