Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 962
________________ फसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार १११५. जाओ संकामिज्जपाणियादो पदेसग्गादो अपुव्वाओ किट्टीओ णिन्चत्तिज्जति ताओ दुसु ओगासेसु । १११६. जं जहा । १११७. किट्टीअंतरेसु च, संगहकिट्टी अंतरेसु' च । १११८. जाओ संगह किट्टी अंतरेसु ताओ थोवाओ । १११९. जाओ किट्टी अंतरेसु ताओ असंखेज्जगुणाओ । ११२०. जाओ संगह किट्टीअंतरेलु तासि जहा किट्टीकरणे अपुव्वाणं णिव्वत्तिज्जमाणियाणं किट्टीणं विधी तहा कायव्वो । ११२१. जाओ किड्डीअंतरेसु तासं जहा वज्झमाणएण पदेसग्गेण अपुव्वाणं णिव्यत्तिज्जमाणियाणं किट्टीणं विधी तहा कायव्वो । ११२२. वरि थोवदरगाणि किट्टीअंतराणि गंतूण संकुग्भमाणपदेसग्गेण अपुव्वा किट्टी निव्वत्तिज्जमाणिगा दिस्सदि । ११२३. ताणि किड्डीअंतराणि पगणणादो पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो । ११२४. परमसमय किट्टीवेदगस्स जा कोहपढमसंगह किट्टी तिस्से असंखेज्जदिभागो विणासिज्जदि । ११२५. किट्टीओ जाओ पढमसमये विणासिज्जति ताओ बहुगीओ । ११२६. जाओ विदियसमये विणासिज्जंति ताओ असंखेज्जगुणहीणाओ । ११२७. एवं रची जाती हैं । जो अपूर्वकृष्टियों संग्रहकृष्टि- अन्तरालोंमें रची जाती हैं, वे अल्प हैं और जो कृष्टि- अन्तरालोमें रची जाती हैं वे असंख्यातगुणी हैं । जो अपूर्वकृष्टियों संग्रहकृष्टि - अन्तरालोमें रची जाती हैं, उनका जैसा विधान कृष्टिकरणमें निर्वर्त्यमान अपूर्वकृष्टियोंका किया गया है वैसा ही प्ररूपण यहहाॅ करना चाहिए । और जो अपूर्वकृष्टियाँ कृष्टि-अन्तरालोंमें रची जाती हैं, उनका जैसा विधान बध्यमान प्रदेशासे निर्वर्त्यमान अपूर्वकृष्टियोंका किया गया है, वैसा ही विधान यहाॅ करना चाहिए | केवल इतनी विशेषता है कि यहॉपर स्तोकतर कृष्टि-अन्तरोको लॉघकर संक्रम्यमाण प्रदेशाग्र से निर्वर्त्यमान अपूर्वकृष्टि दृष्टिगोचर होती है । वे कृष्टि-अन्तर प्रगणनासे अर्थात् संख्या की अपेक्षा पल्योपमके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । ( इस प्रकार कृष्टिवेदकके प्रथम समयकी यह सब प्ररूपणा द्वितीयादिक समय में भी जानना चाहिए । ) ।। १११५-११२३॥ ८५४ अब कृष्टिवेदकके प्रथम समयसे लेकर प्रति समय विनाश की जानेवाली कृष्टियोका अल्पवहुत्व कहते हैं चूर्णिसू० ० - प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदकके जो क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि है, उसका असंख्यातवाँ भाग प्रतिसमय अपवर्तनाघात से विनाश किया जाता है । जो कृष्टियॉ प्रथम समयमें विनाश की जाती हैं, वे बहुत हैं । जो कृष्टियाँ द्वितीय समय में विनाश की जाती हैं, वे असंख्यातगुणी हीन हैं । इस प्रकार यह क्रम अपने विनाशकालके द्विचरम समय में अनिष्ट क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि तक चला जाता है ।। ११२४-११२७॥ I १ कोहपढमसगहकिट्टिं मोत्तूण सेसाणमेक्कारसहं संगह किट्टीणं हेट्ठा तासिमसंखेज्जदिभागपमाणेण जाओ णिव्वत्तिज्जति अपुव्वकिट्टीओ, ताओ सगह किट्टीअतरेसु त्ति भण्णंति | तासिं चेव एक्कारसहं संगहकिट्टी किट्टी अतरेसु पलिदोवमस्सा संखेज्जदिभागमेत्तद्वाणं गतूण अंतरंतरे जाओ अपुव्वकिट्टीओ णिव्वत्तिबंति ताओ किट्टी अंतरेसु त्ति वुच्चति । जयघ०

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