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कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ८९७. एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्त्तिणा। (१४०) एदाणि पुवबद्धाणि होति सव्वेसु द्विदिविसेसेसु ।
सव्वेसु चाणुभागेसु णियमसा सव्वकिट्टीसु ॥१९३॥
८९८. विहासा । ८९९. जाणि अभज्जाणि पुव्ववद्धाणि ताणि णियमा सव्वेसु हिदिविसेसेसु णियमा सव्वासु किट्टीसु ।
विशेषार्थ-छठी मूलगाथामें जितने प्रश्न उठाये गये थे, उन सबका उत्तर प्रस्तुत भाष्यगाथामें दिया गया है और उसीका स्पष्टीकरण प्रस्तुत चूर्णिसूत्रोंमें किया गया है । गाथापठित 'कर्म' शब्दसे अभिप्राय अंगारकर्म आदि पाप-प्रचुर आजीविकासे लिया गया है, अतएव चूर्णिकारने जिनका उल्लेख नहीं किया ऐसे असि मषि आदिका ग्रहण स्वतःसिद्ध है। अंगार-उत्पादनके लिए जो काप्ठ-दहनरूप कार्य किया जाता है उसे अंगारकर्म कहते है। कुछ आचार्य ऐसा भी अर्थ करते हैं कि अंगार अर्थात् कोयलाके द्वारा जो कार्य किया जाता है, वह सब अंगारकर्म कहलाता है। जैसे सुनार, लुहार आदिके कार्य । नाना प्रकारके रंग-विरंगे चित्र बनाना, विविध वर्णके वस्त्र रेंगना, दीवाल आदि पर कारीगरी करना, हरिताल, हिंगुल आदिके सम्मिश्रणसे विभिन्न प्रकारके रंग तैयार करना वर्णकर्स कहलाता है। पत्थरोको काटना, उनमें नाना प्रकारके चित्रोंको उकेरना, मूर्तियाँ बनाना, स्तम्भ, तोरण आदि बनाना पर्वतकर्म है। इन तीन प्रकारके कर्मोंका उल्लेख उपलक्षणमात्र है, अतएव साँचे ढालना, विविध प्रकारके यंत्र बनाना, इसी प्रकारसे नक्काशीके काम करना, कसीदा काढ़ना, लकड़ीके विविध प्रकारके आसन, शय्या बनाना इत्यादिक जिवने भी हस्तनैपुण्यके कार्य हैं, उन सबको शिल्प पदसे ग्रहण किया गया है। इन विविध शिल्प और कर्मरूप कार्य करते हुए जिन कर्मोंका बन्ध होता है, उनका अस्तित्व कृष्टिवेदकके स्यात् हो भी सकता है और स्यात् नहीं भी, अतएव उन्हे भाज्य कहा गया है। भाष्यगाथा और चूर्णिसूत्रमें यद्यपि सामान्यसे 'सर्व लिंगोमें पूर्वबद्ध कर्म भाज्य' बतलाये गये हैं, तथापि यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि जिनवेषरूप निर्ग्रन्थलिंगकी दशामे वॉधे गये कर्मोंका सद्भाव तो कृष्टिवेदक क्षपकके नियमसे ही पाया जाता है, अतएव अन्य विकार-युक्त सर्व पाखंडी वेषोका ही यहाँ लिंग पदसे ग्रहण करना चाहिए। ऐसे पाखंडी लिंगोमें समुपार्जित कर्म भाज्य है, किसीके उनका अस्तित्व पाया जाता है और किसीके नहीं ।
चूर्णिस०-अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं ॥८९७॥
ये पूर्ववद्ध (अभाज्य ) कर्म सर्व स्थितिविशेषोंमें, सर्व अनुभागोंमें और सर्व कृष्टियोंमें नियमसे होते हैं ॥१९३॥
चूर्णिस०-उक्त भाष्यगाथाकी विभापा इस प्रकार है-जो अभाज्य पूर्वबद्ध कर्म हैं, वे नियमसे सर्व स्थितिविशेषोमें और नियमसे सर्वकृष्टियोंमें पाये जाते हैं ॥८९८-८९९।।