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कसाय पाहुड सुत्त
[ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार
९९०. एवं भवबद्धसेसयाणि । ९९१ विदियाए गाहाए अत्थो समत्तो भवदि ।
९९२. तदिया गाहाए अत्थो । ९९३ . असामण्णाओ द्विदीओ एक्का वा, दोवा, तिष्णि वा; एवमणुवद्धाओ उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ९९४. एवं तदिया गाहाए अत्थो समत्तो ।
९९५ एत्तो चउत्थीए गाहाए अत्थो । ९९६. सामण्णद्विदीओ एकंत रिदाओ थोवाओ । ९९७ दुअंतरिदा विसेसाहिया । ९९८ एवं गंतूण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे [ जवम ] | ९९९ णाणागुणहाणि सलागाणि थोवाणि । १०००, एक्कंवरमसंखेज्जगुणं ।
प्रबद्ध-शेपकी प्ररूपणाके समान भवबद्ध-शेपोकी प्ररूपणा भी करना चाहिए । इस प्रकार दूसरी भायगाथाका अर्थ समाप्त होता है || ९८३-९९१॥
चूर्णिस् ०
० - अब तीसरी भाष्यगाथाका अर्थ अभव्यसिद्धकी अपेक्षासे करते हैं । असामान्य स्थितियाँ एक, दो, तीन आदिके अनुक्रमसे बढ़ती हुई अनुबद्ध-परम्परारूपमे उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवे भाग होती है । इस प्रकार तीसरी भाष्यगाथाका अर्थ समाप्त होता है ।। ९९२-९९४ विशेषार्थ - अ - असामान्य स्थिति और सामान्य स्थितिका स्वरूप पहले बताया जा चुका है । उनमे से इस गाथामे असामान्य स्थितियो के प्रमाणको बतलाया गया है । उसे इस प्रकार जानना चाहिए - समयप्रवद्ध और भववद्ध-शेपकी अपेक्षा जघन्यसे सामान्यस्थितियोंसे निरुद्ध एक भी असामान्य स्थिति पाई जाती है, दो भी पाई जाती है, तीन भी पाई जाती है । इस प्रकार एक-एकके क्रमसे निरन्तर बढ़ते हुए उत्कर्ष से पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र असामान्य स्थितियाँ अभव्यसिद्ध जीवोके सामान्य स्थितियो से परस्परमे सम्बद्ध पाई जाती है । तथा जिस प्रकार क्षपक- प्रायोग्यप्ररूपणामे असामान्यस्थितियोका अल्पबहुत्व यवमध्य-प्ररूपणा ग -गर्भित बतलाया गया है, उसी प्रकार यहाँ अभव्यसिद्धिक जीवोकी अपेक्षासे भी उसका प्ररूपण करना चाहिए । केवल इतनी घात विशेष ज्ञातव्य है कि यहॉपर पल्यो - पमके असंख्यातवे भागमात्र असामान्यस्थितिकी शलाकाओसे दुगुण वृद्धि होती है और क्षपक-प्रायोग्यप्ररूपणामे आवलीके असंख्यातवें भागमात्र अध्वान आगे जाकर दुगुण वृद्धि होती है । वहॉपर यवमध्यसे अधस्तन और उपरितन अध्वानका प्रमाण आवलीके असंख्यातवे भागमात्र है, किन्तु यहॉपर उसका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवे भागमित है । चूर्णि सू० ० - अब इससे आगे चौथी भाष्यगाथाका अर्थ कहते हैं । यवमध्यके उभयपार्श्वमे एकान्तरित सामान्य स्थितियों अल्प हैं । दो- अन्तरित सामान्य स्थितियाँ विशेष अधिक हैं । इस क्रमसे बढ़ते हुए जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागपर यवमध्य प्राप्त होता है । यहाँपर नाना गुणहानिशलाकाऍ अल्प हैं और एकान्तर असंख्यात - गुणित है ॥ ९९५-१०००॥