Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

Previous | Next

Page 954
________________ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार पलिदोवमच्छेदणाणं पि असंखेज्जदिभागो । १०१९. णाणंतराणि थोवाणि । १०२०. एक्कंतरमणंतगुणं । ८४६ १०२१. खवगस्स वा अक्खवगस्स वा समयपवद्धाणं वा भववद्धाणं वा अणुसमयणिल्लेवण कालो' एगसमइओ बहुगो । १०२२. दुसमइओ विसेसहीणो । १०२३. एवं गंतूण आवलियाए असंखेज्जदिभागे दुगुणहीणो । १०२४. उक्कस्सओ वि अणुसमयणिल्लेवणकालो आवलियाए असंखेज्जदिभागां । १०२५. अक्खवगस्स एगसमइएण अंतरेण पिल्लेविदा समयपवद्धा वा भवबद्धा वा थोथा । १०२६. दुसमएण अंतरेण णिल्लेविदा विसेसाहिया । १०२७ एवं गंतूण पलिदोवस्त असंखेज्जदिभागे दुगुणा । १०२८. डाणाणमसंखेज्जदिभागे जवमन्यं । १०२९. उक्कस्सयं पि पिल्लेवणंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । १०३०. एक्केण समरण पिल्लेविज्जति समयपवद्धा वा भववद्धा वा एक्को भाग है । अतएव नानागुणहानिस्थानान्तर अल्प हैं और एकगुणहानिस्थानान्तर अनन्तगुणित हैं । ( इसी प्रकार से भववद्धशेपोंकी भी यवमध्यप्ररूपणा जानना चाहिए | ) ||१०१२-१०२० ॥ अव भव्यसिद्ध और अभव्यसिद्ध जीवोके योग्य जो समान प्ररूपणा है, निरूपण करते है उसका चूर्णिसू० - क्षपकके अथवा अक्षपकके समयप्रवद्धोंका अथवा भववद्धोका एकसमयिक अनुसमयनिर्लेपनकाल बहुत है । द्विसमयिक अनुसमयनिर्लेपनकाल विशेष हीन है । इस प्रकार विशेष हीन क्रमसे जाकर अनुसमयनिर्लेपनकाल आवलीके असंख्यातवें भागपर दुगुण हीन है । उत्कृष्ट भी अनुसमयनिर्लेपनकाल आवलीका असंख्यातवाँ भाग है ॥ १०२१-१०२४॥ ra एकको आदि लेकर एकोत्तरके क्रमसे परिवर्धित अनिर्लेपित स्थितियोके द्वारा अन्तरित निर्लेपनस्थितियोका उदयकी अपेक्षा निर्लेपित - पूर्व भववद्ध और समयप्रबद्धोंका अतीतकालविषयक अल्पवहुत्व अक्षपककी दृष्टिसे कहते हैं चूर्णिसू० - अक्षपकके एकसमयिक अन्तरसे निर्लेपित समयप्रबद्ध और भववद्ध अल्प हैं । द्विसमयिक अन्तरसे निर्लेपित समयप्रवद्ध और भववद्ध विशेष अधिक हैं । इस प्रकार विशेष अधिकके क्रमसे आगे जाकर पल्योपमके असंख्यातवें भागपर उनका प्रमाण दुगुना होता है । दुगुणवृद्धिरूप स्थानोंको पल्योपमके असंख्यातवे भागपर यवमध्य प्राप्त होता है । उत्कृष्ट भी निर्लेपन - अन्तर पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण है ।। १०२५ - १०२९॥ अव आचार्य एक समय में निर्लेप्यमान समयबद्ध और भवबद्धोका प्रमाण बतलानेके लिए उत्तरसूत्र कहते हैं चूर्णिसू ० - एक समयके द्वारा जो समयप्रबद्ध या भवबद्ध निर्लेपित किये जाते हैं, १ अणुसमयणिल्लेवणकालो णाम समयपबद्धाण वा भवपवद्वाण वा अणु संततं णिल्लेवणकालो । जयघ०

Loading...

Page Navigation
1 ... 952 953 954 955 956 957 958 959 960 961 962 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974 975 976 977 978 979 980 981 982 983 984 985 986 987 988 989 990 991 992 993 994 995 996 997 998 999 1000 1001 1002 1003 1004 1005 1006 1007 1008 1009 1010 1011 1012 1013 1014 1015 1016 1017 1018 1019 1020 1021 1022 1023 1024 1025 1026 1027 1028 1029 1030 1031 1032 1033 1034 1035 1036 1037 1038 1039 1040 1041 1042 1043