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गा० २०२ ]
चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदक क्रिया निरूपण
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९४२१. विहासा । ९४२. सामण्णसण्णा ताव । ९४३. एक्कम्हि ठिदिवि से से जहि समयबद्धसेसमत्थि सा हिदी सामण्णा त्तिणादव्वा । ९४४. जम्मि णत्थि सा ट्ठी असामण्णा त्तिणादव्वा । ९४५ एवमसामण्णाओ हिदीओ एक्का वा दो वा उक्कस्सेण अणुवद्धाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीओ |
९४६. एक्केक्केण असामण्णाओ थोवाओ । ९४७. दुरोण विसेसाहियाओ ९४८. तिगेण विसेसाहियाओ । आवलियाए असंखेज्जदिभागे दुगुणाओ |
शेषसे विरहित असामान्य स्थितियाँ अधिक से अधिक आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पाई जाती हैं || २०२ ||
चूर्णि सू०. ० - अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है । उसमे सबसे पहले सामान्यसंज्ञाका अर्थ करते हैं - जिस एक स्थितिविशेषमे समयप्रबद्ध-शेष ( और भववद्धशेष ) पाये जाते है, वह स्थिति 'सामान्य' संज्ञावाली जानना चाहिए । जिस स्थितिविशेषमे समयप्रबद्ध - शेष ( और भवबद्ध - शेप ) नही पाये जाते है, वह 'असामान्य' संज्ञावाली जानना चाहिए । इस प्रकार असामान्यस्थितियाँ एक, दोको आदि लेकर अधिकसे अधिक अनुवद्ध अर्थात् निरन्तररूपसे आवलीके असंख्यातवे भागमात्र पाई जाती हैं ।। ९४१-९४५। अब इन्ही असामान्य स्थितियोके जघन्य और उत्कृष्ट करते हैं
प्रमाणका निर्देश
चूर्णि सू० [0- एक -एक रूपसे पाई जानेवाली असामान्य स्थितियों थोड़ी है । द्विक अर्थात् दो-दो रूपसे पाई जानेवाली असामान्य स्थितियाँ विशेष अधिक है । त्रिक अर्थात् तीन-तीन रूपसे पाई जानेवाली असामान्य स्थितियॉ विशेष अधिक है । इस प्रकार विशेष अधिक रूप यह क्रम आवलीके असंख्यातवें भागपर दुगुना हो जाता है ।। ९४६-९४८।। विशेषार्थ - इस उपयुक्त अर्थका स्पष्टीकरण करनेके लिए उस कृष्टिवेदक क्षपकके किसी एक संज्वलनप्रकृतिकी वर्ष पृथक्त्वप्रमाण स्थितिकी काल्पनिक रचना कीजिए । पुनः उस स्थिति के भीतर सान्तर या निरन्तररूपसे अवस्थित सर्व असामान्य स्थितियोको बुद्धि पृथक् करके क्रमशः स्थापित कीजिए । इस प्रकार क्रमसे स्थापित की गई इन असामान्य स्थितियो पर दृष्टिपात कीजिए, तब ज्ञात होगा कि उस वर्षपृथक्त्वप्रमाण अन्यतर संज्वलनकी स्थिति मे एक-एक रूपसे पाई जानेवाली असामान्य स्थितियॉ सबसे कम है । द्विकरूपसे पाई जानेवाली विशेष अधिक हैं, त्रिकरूपसे पाई जानेवाली विशेष अधिक है, चतुष्क रूपसे पाई जानेवाली विशेष अधिक हैं । इस प्रकार यह क्रम आवलीके असंख्यातवें भाग तक चला जाता है । आवली के असंख्यातवें भागपर पाई जानेवाली असामान्यस्थितियोका प्रमाण, प्रारम्भके प्रमाणसे दुगुना हो जाता है । यहाँ जो एक एकरूपसे, द्विक या त्रिक आदिके रूपसे वर्तमान असामान्य स्थितियोका उल्लेख किया गया है, उसके विषयमें जयधवलाकारने दो प्रकारका अर्थ किया है । उनमे प्रथम अर्थ के अनुसार - ' एक - एक रूपसे अर्थात् सामान्य स्थितियो से