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गा० १९५] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण
९००. एत्तो सत्तमीए मूलगाहाए सम्मुकित्तणा। (१४१) एगसमयप्पबद्धा पुण अच्छुत्ता केतिगा कहिं हिदीसु ।
भवबद्धा अच्छुत्ता हिदीसु कहि केत्तिया होति ॥१९४॥
९०१. एदिस्से चत्तारि भासगाहाओ। ९०२. तासिं समुकित्तणा । (१४२) छण्हं आवलियाणं अच्छुत्ता णियमसा समयपबद्धा।
सव्वेसु हिदिविसेसाणुभागेसु च चउण्हं पि ॥१९५॥
विशेषार्थ-ऊपर जो अभजनीय पूर्वबद्ध कर्म तीन मूलगाथाओंमें बताये गये हैं, वे नियमसे सर्वकर्मोंकी जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सर्वस्थितियोमे पाये जाते हैं । 'सर्व अनुभागोंमें' इस पदसे चारो संज्वलनकषायोकी सर्व सदृश सघन कृष्टियोका ग्रहण करना चाहिए । 'सर्वकृष्टियोमें' इस पदसे अभिप्राय समस्त संग्रहकृष्टियो और उनकी अवयवकृष्टियोकी एक ओली (पंक्ति या श्रेणी ) से है । अतएव संज्वलनक्रोधदिकी एक एक कृष्टिमें संभव अनन्त सदृश सघन कृष्टियोमें पूर्वबद्ध अभाज्य कर्म नियमसे पाये जाते हैं, ऐसा समझना चाहिए । इसी प्रकार भजनीय संभव कर्मोंका भी एकादि-उत्तरक्रमसे सर्वस्थिति. विशेषोमे, सर्व अनुभागोमें और सर्व कृष्टियोमें संभव अवस्थिति जान लेना चाहिए ।
चूर्णिस०-अब इससे आगे सातवी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥९००॥
एक समयमें बाँधे हुए कितने कर्मप्रदेश किन किन स्थितियों में अछूते अर्थात् उदयस्थितिको अप्राप्त रहते हैं। इसी प्रकार कितने भवबद्ध कर्म-प्रदेश किन-किन स्थितियोंमें असंक्षुब्ध रहते हैं ॥१९४॥
भावार्थ-इस मूलगाथामे अन्तरकरणके प्रथम समयसे लगाकर उपरिम अवस्थामें वर्तमान क्षपकके समयप्रबद्ध और भवबद्ध कर्म-प्रदेशोंकी उदय और अनुदयरूपताकी पृच्छा की गई है, जिसका उत्तर आगे कही जानेवाली भाष्यगाथाओके द्वारा दिया जायगा । एक समयमें बाँधे हुए कर्मपुंजको एक समयप्रबद्ध कहते हैं। अनेक भवोमे वॉधे हुए कर्मपुंजको भववद्ध कहते है । अछुत्तपदका अर्थ अस्पृष्ट अर्थात् उदयस्थितिको अप्राप्त अर्थ होता है । जयधवलाकारने अथवा कहकर असंक्षुब्ध अर्थ भी किया है, जिसका अभिप्राय यह है कि जिनका संक्रमण संभव नहीं है, ऐसे कितने कर्म-प्रदेश किन-किन स्थितियोमे पाये जाते हैं ।
चूर्णिस०-इस भूलगाथाके अर्थको व्याख्यान करनेवाली चार भाष्यगाथाएँ हैं । उनकी क्रमशः समुत्कीर्तना की जाती है ॥९०१-९०२॥
___अन्तरकरण करनेसे उपरिम अवस्थामें वर्तमान क्षपकके छह आवलियोंके भीतर बँधे हुए समयप्रबद्ध नियमसे अछूते हैं। (क्योंकि अन्तरकरणके पश्चात् छह आवलीके भीतर उदीरणा नहीं होती है । ) वे अछूते समयप्रवद्ध चारों ही संज्वलनकपायसम्बन्धी सभी स्थितिविशेषोंमें और सभी अनुभागोंमें अवस्थित रहते हैं !॥१९५।।