Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 940
________________ कसाय पाहुड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ९१८. तदिया विभासगाहाए अत्थो एत्थेव परूविदो । वरि समुत्तिणा कायव्वा । ९१९. तं जहा । (१४४) तदिया सत्तसु किट्टीस चउत्थी दससु होइ किट्टीसु । ते परं सेसाओ भवंति सव्वासु किट्टीसु ॥ १९७॥ ९२०. एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । (१४५) पदे समयपवद्धा अच्छुत्ता पियमसा इह भवहि । सेसा भवबद्धा खलु संछुद्धा होंति बोद्धव्या ॥१९८॥ ९२१. एदिस्से गाहाए अत्यो पढमभासगाहाए चेव परुविदो । ९२२. एत्तो अट्टमीए मूलगाहाए समुत्तिणा । (१४६) एगसमयपवद्धाणं सेसाणि च कदिसु द्विदिविसेसेसु । भवसेसगाणि कदिसु च कदि कदि वा एगसमएण ॥ १९९॥ ८३२ चूर्णि सू० - इस प्रकार तीसरी भाष्यगाथाका अर्थ भी इसी दूसरी भायगाथाकी विभाषामे कह दिया गया । अब केवल समुत्कीर्तना करना चाहिए । वह इस प्रकार है ।।९१८-९१९॥ तीसरी आवली सात कृष्टियोंमें, चौथी आवली दश कृष्टियों में और उससे आगेकी शेष सर्व आवलियाँ सर्व कृष्टियों में पाई जाती हैं ॥१९७॥ चूर्णिसू० - अब इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥ ९२० ॥ ये ऊपर कहे गये छहों आवलियोंके इस वर्तमान भवमें ग्रहण किये गये समयप्रबद्ध नियमसे असंक्षुब्ध रहते हैं, अर्थात् उदय या उदीरणाको प्राप्त नहीं होते हैं । किन्तु शेष भवबद्ध अर्थात् कर्मस्थितिके भीतर होनेवाले भवोंमें बाँधे हुए सर्व समय प्रबद्ध उदयमें संक्षुब्ध होते हैं ॥ १९८ ॥ चूर्णि सू० [0- इस चौथी भाष्यगाथाका अर्थ पहली भाष्यगाथाकी विभापामें कहा जा चुका है ॥९२१|| चूर्णिसू० - अब इससे आगे आठवीं मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥ ९२२ ॥ एक समयमें बँधे हुए और नाना समयों में बँधे हुए समयप्रवद्धों के शेप कितने कर्म- प्रदेश कितने स्थितिविशेपोंमें और अनुभागविशेपोंमें पाये जाते हैं ? इसी प्रकार एक भव और नाना भवोंमें बँधे हुए कितने कर्मप्रदेश कितने स्थितिविशेषोंमें और अनुभागविशेषोंमें पाये जाते हैं ! तथा एक समयरूप एक स्थितिविशेषमें वर्तमान कितने कर्मप्रदेश एक-अनेक समयप्रबद्ध और भववद्धों के शेष पाये जाते हैं १ ॥ १९९ ॥

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