Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 935
________________ ८२७ गा० १९२] चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया-निरूपण ८८४. विहासा एसा । ८८५. एत्तो छट्ठी मूलगाहा।। (१३८) किलेस्साए बद्धाणि केसु कम्मसु वट्टमाणेण । सादेण असादेण च लिंगेण च कम्हि खेत्तम्हि ॥१९१॥ ८८६. एदिस्से दो भासगाहाओ । ८८७. तासिं समुकित्तणा । (१३९) लेस्सा साद असादे च अभजा कम्म सिप्प-लिंगे च । खेत्तम्हि च भजाणि दु समाविभागे अभजाणि ॥१९२॥ ८८८ विहासा । ८८९. तं जहा । ८९०. छसु लेस्सासु सादेण असादेण च बद्धाणि अभज्जाणि । ८९१.कम्म-सिप्पेसु भज्जाणि । ८९२.कम्माणि जहा-अंगार कम्म वण्णकम्मं पव्यदकम्ममेदेसु कम्मेसु भज्जाणि । ८९३. सव्वलिंगेसु च भज्जाणि । ८९४. खेत्तम्हि सिया अधोलोगिगं, सिया उड्डलोगिगं; णियमा तिरियलोगिगं । ८९५. अधोलोगगुड्डलोगिगं च सुद्धणत्थि । ८९६. ओसप्पिणीए च उस्सप्पिणीए च सुद्धं णत्थि । चूर्णिमू०-इस गाथाकी यह समुत्कीर्तना ही उसकी विभाषा है। अर्थात् उक्त गाथाके अति सुबोध होनेसे उसकी विभाषा नहीं की गई है ।।८८४॥ चूर्णिसू०-अब इससे आगे छठी मूलगाथा अवतरित होती है ॥८८५॥ किस लेश्यामें, किन-किन कर्मोंमें तथा किस क्षेत्रमें (और किस कालमें ) वर्तमान जीवके द्वारा वाँधे हुए, तथा साता, असाता और किस लिगके द्वारा बाँधे हुए कर्म कृष्टिवेदक क्षपकके पाये जाते हैं ॥१९१॥ __ चूर्णिस ०-इस मूलगाथाके अर्थको व्याख्यान करनेवाली दो भाष्यगाथाएँ हैं। उनकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥८८६-८८७॥ सर्व लेश्याओंमें, तथा साता और असातामें वर्तमान जीवके पूर्ववद्ध कर्म अभाज्य हैं। असि, मषि आदिक सभी कर्मोंमें, सभी शिल्पकार्योंमें, सभी पाखण्डी लिंगोंमें, और सर्व क्षेत्रमें बाँधे हुए कर्म भाज्य हैं। समा अर्थात् उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीरूप कालके सर्व विभागोंमें पूर्वबद्ध कर्म अभाज्य हैं ॥१९२॥ चूर्णिसू०-उक्त गाथाकी विभाषा इस प्रकार है-छहो लेश्याओमे, तथा सातावेदनीय और असातावेदनीयके उदयमें वर्तमान जीवके द्वारा पूर्ववद्ध कर्म अभाज्य है, अर्थात् कृष्टिवेदक क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं । सर्व कर्मोंमें और सर्व शिल्पोंमे पूर्ववद्ध कर्म भाज्य हैं। वे कर्म इस प्रकार है-अंगारकर्म, वर्णकर्म और पर्वतकर्म ( आदिक)। इन कोंमे बॉधे हुए कर्म भाज्य हैं। क्षेत्रमेसे अधोलोक और ऊर्ध्वलोकमें बॉधे हुए कर्म स्यात् पाये जाते हैं । किन्तु तिर्यग्लोकमें बद्ध कर्म नियमसे पाये जाते है। अधोलोक और ऊर्ध्वलोकमे संचित कर्म शुद्ध नहीं पाया जाता, किन्तु तिर्यग्लोकके संचयसे सम्मिश्रित ही पाया जाता है । पर तिर्यग्लोकका संचय शुद्ध भी पाया जाता है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीमें संचित कर्म शुद्ध नहीं पाया जाता, किन्तु सम्मिश्रित पाया जाता है ।।८८८-८९६॥

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