________________
८२६
कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ८७५. विहासा । ८७६. ओरालिएण ओरालियमिस्सएण चउविहेण मणजोगेण चउन्विहेण वचिजोगेण वद्धाणि अभज्जाणि । ८७७. सेसजोगेसु बद्धाणि भज्जाणि ।
८७८. एत्तो तदियभासगाहा । ८७९. तं जहा । (१३६) अध सुद-मदिउवजोगे होति अभजाणि पुव्वबद्धाणि ।
भजाणि च पञ्चक्खसु दोसु छदुमत्थणाणसु ॥१८९॥
८८०. विहासा । ८८१. सुदणाणे अण्णाणे, मदिणाणे अण्णाणे, एदेसु चदुसु उवजोगेसु पुव्वबद्धाणि णियमा अस्थि । ८८२. ओहिणाणे अण्णाणे मणपज्जवणाणे एदेसु तिसु उवजोगेसु पुव्ववद्धाणि भजियव्वाणि ।
८८३. एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्त्तिणा । (१३७) कम्माणि अभजाणि दु अणगार-अचक्खुदंसणुवजोगे।
अध ओहिदंसणे पुण उवजोगे होति भजाणि ॥१९०॥
चूर्णिसू०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, चतुर्विध मनोयोग और चतुर्विध वचनयोगके साथ बाँधे हुए कर्म कृष्टिवेदक क्षपकके अभाज्य हैं, अर्थात् नियमसे पाये जाते हैं। शेष अर्थात् वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग इन पाँच योगोंके साथ बॉधे हुए कर्म भजितव्य हैं, अर्थात् हो भी सकते हैं और नही भी हो सकते हैं ॥८७५-८७७॥
चूर्णिसू०-अब इससे आगे तीसरी भाष्यगाथा कही जाती है। वह इस प्रकार है ॥८७८-८७९॥
मति और कुमतिरूप उपयोगमें तथा श्रुत और कुश्रुतरूप उपयोगमें पूर्व बद्ध कर्म अभाज्य हैं । किन्तु दोनों प्रत्यक्ष छद्मस्थ-ज्ञानों में पूर्व बद्ध कर्म भाज्य हैं ॥१८९॥
चूर्णिसू०-श्रुतज्ञान, कुश्रुतज्ञान, मतिज्ञान, कुमतिज्ञान, इन चारो ज्ञानोपयोगोमें पूर्वबद्ध कर्म क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं, अतः अभाज्य हैं । अवधिज्ञान विभंगावधि और मनःपर्ययज्ञान इन तीनो ज्ञानोपयोगोमें पूर्वबद्ध कर्म भजितव्य हैं, अर्थात् किसीके पाये जाते हैं और किसीके नहीं पाये जाते ।।८८०-८८२॥
चूर्णिसू०-अव इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है।। ८८३॥
अनाकार अर्थात् चक्षुदर्शनोपयोग और अचक्षुदर्शनोपयोगमें पूर्ववद्ध कर्म अभाज्य हैं। किन्तु अवधिदर्शनोपयोगमें पूर्वबद्ध कर्म कृष्टिवेदक क्षपकके भाज्य हैं ॥१९॥