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कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ८६१. एदिस्से गाहाए विहासा चेव कायव्या ।
८६२. एत्तो तदियाए भासगाहाए समुकित्तणा । (१३२) उकस्सय अणुभागे द्विदि उकस्साणि पुव्वबद्धाणि ।
सजियव्वाणि अभजाणि होति णियमा कसाएसु ॥१८५॥
४६३. विहासा । ८६४. उक्कस्सद्विदिवद्धाणि उक्कस्सअणुभागवद्धाणि च भजिदव्याणि । ८६५. कोह-माण-माया-लोभोवजुत्तेहिं बद्धाणि अभजियव्वाणि ।
८६६. एत्तो पंचमीए मूलगाहाए समुकित्तणा । ८६७. तं जहा ।
चूर्णिसू०-इस गाथाकी विभाषा ही करना चाहिए । (गाथाके सुगम होनेसे चूर्णि- . कारने पृथक् विभाषा नहीं की है) ॥८६१॥
विशेषार्थ-इस भाष्यगाथाके द्वारा इन्द्रिय और कायमार्गणाकी अपेक्षा भव-संचित पूर्वबद्ध कर्मका निरूपण किया गया है, जिसका अभिप्राय यह है कि कृष्टिवेदक क्षपकके असंख्यात एकेन्द्रिय-भवोमे संचित कर्मोंका सद्भाव पाया जाता है। इसका कारण यह है कि कर्मस्थितिके भीतर कमसे कम पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण एकेन्द्रियोंके भव ग्रहण पाये जाते हैं । तथा एक, दो को आदि लेकर संख्यात त्रस-भवोमें संचित कर्मोंका अस्तित्व पाया जाता है। ___ चूर्णिसू०-अब इससे आगे तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं ॥८६२॥
उत्कृष्ट अनुभागविशिष्ट और उत्कृष्ट स्थितिविशिष्ट पूर्वबद्ध कर्म भजितव्य हैं । कषायोंमें पूर्वबद्ध कर्म नियमसे अभाज्य हैं ॥१८५॥
. चूर्णिसू०-उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-कृष्टिवेदक क्षपकके उत्कृष्ट स्थितिवद्ध और उत्कृष्ट अनुभागबद्ध कर्म भजितव्य हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोके उपयोगके साथ बद्ध कर्म अभजितव्य है ॥८६३-८६५।।
विशेषार्थ-उत्कृष्ट स्थिति और अनुभागसंयुक्त बद्ध कर्म भजितव्य हैं अर्थात् स्यात् होते है और स्यात् नहीं भी होते हैं। इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागको वॉधकर कर्मस्थितिके भीतर ही क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवके तो उत्कृष्ट स्थितिअनुभाग-विशिष्ट कर्मप्रदेशोका पाया जाना संभव है। किन्तु कर्मस्थितिके भीतर सर्वत्र ही अनुत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर आये हुए क्षपकके उत्कृष्ट स्थिति-अनुभागविशिष्ट कर्मप्रदेशोका पाया जाना संभय नहीं है। कषायमार्गणाकी अपेक्षा चारो कषायोके उपयोगके साथ पूर्वमे वॉधे हुए कर्म नियमसे अभाज्य हैं, अर्थात् पाये ही जाते हैं । इसका कारण यह है कि चारो कषायरूप उपयोग अन्तर्मुहूर्तमे परिवर्तित होता रहता है, अतएव भननीयता संभव नहीं है।
चूर्णिसू०-अब इससे आगे पाँचवीं मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार है ॥८६६-८६७॥