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चारित्र मोहक्षपक कृष्टि वेदकक्रिया निरूपण
(१३३) पज्जत्तापजत्तेण तथा त्थीपुण्णव सयमिस्सेण । सम्मत्ते मिच्छत्ते केण व जोगोवजोगेण ॥ १८६॥ ८६८. एत्थ चत्तारि भासगाहाओ । ८६९. तं जहा । (१३४) पजत्तापजत्ते मिच्छत्त व सए च सम्मत्ते ।
कम्माण अभाणि दुत्थी - पुरिसे मिस्सगे भज्जा ॥ १८७॥ ८७०. विहासा । ८७१. पज्जत्तेण अपज्जत्तेण मिच्छाइट्टिणा सम्माइट्टिणा कुंसयवेदेण च एवं भावभूदेण वद्धाणि णियमा अस्थि । ८७२ इत्थीए पुरिसेण सम्मामिच्छाइट्टिणा च एवंभावभूदेण वद्धाणि भज्जाणि
गा० १८८ ]
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८७३. तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ८७४. तं जहा । (१३५) ओरालिये सरीरे ओरालियमिस्सए च जोगे दु ।
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चदुविधमण- वचिजोगे च अभजा सेस भजा ॥ १८८ ॥
पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था के साथ, तथा स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेद के साथ, मिश्रप्रकृति, सम्यक्त्वप्रकृति और मिथ्यात्वप्रकृति के साथ, तथा किस योग और किस उपयोगके साथ पूर्व बद्ध कर्म कृष्टिवेदक क्षपकके पाये जाते हैं ९ ॥१८६॥
भावार्थ - इस मूलगाथाके द्वारा पर्याप्त - अपर्याप्त अवस्थामे तथा वेद, सम्यक्त्व, योग और उपयोग रूप-ज्ञान और दर्शनमार्गणामे पूर्वबद्ध कर्मकी भजनीयता - अभजनीयता पृच्छारूपसे वर्णन की गई है, जिसका उत्तर आगे कही जानेवाली भाष्यगाथाओके द्वारा दिया जायगा । चूर्णिसू० - ० - उक्त मूलगाथाके अर्थ की विभाषा करनेवाली चार भाष्यगाथाएँ है | वे इस प्रकार हैं ॥। ८६८-८६९॥
पर्याप्त अपर्याप्त दशामें, मिथ्यात्व, नपुंसकवेद और सम्यक्त्व अवस्था में बाँधे हुए कर्म अभाज्य हैं । तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और सम्यग्मिथ्यात्व अवस्थामे वॉधे हुए कर्म भाज्य हैं ॥ १८७॥
चूर्णिसू० - इसकी विभाषा इस प्रकार है - पर्याप्त, अपर्याप्त, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टिऔर नपुंसकवेदके भावरूपसे परिणत जीवके द्वारा बाँधे हुए कर्म नियमसे पाये जाते है, अतः अमान्य है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और देशा मर्शक रूप से सूचित सासादनसम्यग्दृष्टिके भावरूपसे परिणत जीवके द्वारा बाँधे हुए कर्म भाज्य हैं, अर्थात् स्यात् पाये जाते हैं और स्यात् नहीं भी पाये जाते हैं ॥। ८७०-८७२॥
चूर्णिसू · · (० - अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ॥ ८७३-८७४॥
औदारिककाययोग, औदारिकमिश्र काययोग, चतुबिंध मनोयोग और चतुविध वचनयोगमें बाँधे हुए कर्म अभाज्य हैं। शेष योगोंमें बाँधे हुए कर्म भाज्य हैं ॥ १८८ ॥
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