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कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार २७१. एत्तो विदिया मूलगाहा । २७२. तं जहा । (७७) संकामगपट्रवगो के बंधदि के व वेदयदि अंसे ।
संकामेदि व के के केसु असंकामगो होइ ॥१३०॥ ___ २७३. एदिस्से तिण्णि अत्था । २७४. तं जहा । २७५. के बंधदि ति पढमो अत्थो । २७६. के व वेदयदि त्ति विदिओ अत्थो । २७७. पच्छिमद्धे तदिओ अत्थो । २७८. पडमे अत्थे तिण्णि भासगाहाओ। २७९. विदिये अत्थे वे भासगाहाओ । २८०. तदिये अत्थे छठभासगाहाओ । २८१. पहमस्स अत्थस्स तिण्हं भासगाहाणं समुक्त्तिणं' विहासणं च एकदो वत्तइस्सामो । २८२. तं जहा । (७८) वस्ससदसहस्साइटिदिसंखाए दु मोहणीयं तु ।
बंधदि च सदसहस्सेसु असंखेज्जेसु सेसाणि ॥१३१॥
२८३. एसा गाहा अंतर-दुसमयकदे हिदिवंधपमाणं भणइ । (७९) भय-सोगमरदि-रदिगं हस्त-दुगुछा-णव॑सगित्थीओ।
असादं णीचागोदं अजसं सारीरगंणाम ॥१३२॥ इस प्रकार पहली मूलगाथाका पाँच भाष्यगाथाओके द्वारा अर्थ-व्याख्यान किया गया। चूर्णिसू०-अब दूसरी मूलगाथा कहते हैं । वह इस प्रकार है ॥२७१-२७२।।
संक्रमण-प्रस्थापक जीव किन-किन कर्माशोंको बांधता है, किन-किन कर्माशोंका वेदन करता है और किन-किन कर्माशोंका असंक्रामक रहता है ॥१३०॥
चूर्णिसू०-इस मूलगाथाके तीन अर्थ है। वे इस प्रकार हैं-'किन कांशोको बाँधता है । यह बन्ध-विषयक प्रथम अर्थ है । 'किन कांशोका वेदन करता है। यह उदयसम्बन्धी द्वितीय अर्थ है और गाथाके पश्चिमार्धमें संक्रमण-असंक्रमण सम्बन्धी तृतीय अर्थ निहित है। इनमेसे प्रथम अर्थमे तीन भाष्यगाथाएँ प्रतिवद्ध हैं। द्वितीय अर्थमे दो भाष्यगाथाएँ और तृतीय अर्थमे छह भाष्यगाथाएँ निवद्ध है। प्रथम अर्थका व्याख्यान करनेवाली तीनो भाष्यगाथाओकी समुत्कीर्तना और विभाषा एक साथ कहेगे । वह इस प्रकार है ॥२७३-२८२॥
. द्विसमयकृत-अन्तरावस्थामें वर्तमान संक्रमण-प्रस्थापकके मोहनीय कम तो वर्षशत-सहस्र स्थितिसंख्यारूप बंधता है और शेप कर्म असंख्यात शतसहस्र वर्षप्रमाण स्थितियों में बंधते हैं ॥१३१॥
' चूर्णिस०-यह गाथा द्विसमयकृत अन्तरमे स्थितिवन्धके प्रमाणको कहती है । अर्थात् अन्तरकरणके दो समय पश्चात् संक्रामकके मोहनीय कर्मका स्थितिवन्ध संख्यात लाख वर्षप्रमाण और शेष कर्मोंका असंख्यात लाख वर्षप्रमाण होता है ॥२८३॥ • अव दूसरी भाष्यगाथाका अवतार करते हैं
भय, शोक, अरति, रति, हास्य, जुगुप्सा, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, असातावेदनीय, नीचगोत्र, अयश-कीर्ति और शरीर नामकर्म ॥१३२।।
१ समुकित्तण णाम उच्चारणविहासण णामविवरण । जयध०