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गा० १७४ ] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिगतविशेप-निरूपण
८१५ ७८४. विहासा । ७८५.एदीए गाहाए परंपरोवणिधाए सेढीए भणिदं होदि । ७८६. कोहस्स जहणियादो वग्गणादो उक्कस्सियाए वग्गणाए पदेसग्गं विसेसहीणमणंतभागेण ।.
७८७. एत्तो पंचमीए भासगाहाए सम्मुक्कित्तणा । ७८८. तं जहा । (१२१) एसो कमो च कोधे माणे णियमा च होदि मायाए ।
लोभम्हि च किट्टीए पत्तेगं होदि बोद्धव्वो ॥१७४॥
७८९. विहासा । ७९०. जहा कोहे चउत्थीए गाहाए विहासा, तहा माणमाया-लोभाणं पि णेदव्या । ७९१. माणादिवग्गणादो सुद्ध माणस्स उत्तरपदं तु । सेसो अणंतभागो णियमा तिस्से पदेसग्गे ॥ ७९२. एवं चेव मायादिवग्गणादो० । ७९३. लोभादिवग्गणादो० ।
७९४. मूलगाहाए विदियपदमणुभागग्गेणेत्ति, एत्थ एका भासगाहा । ७९५. तं जहा।
चूर्णिसू०-अब इस गाथाकी विभाषा की जाती है-इस गाथाके द्वारा परम्परोपनिधारूप श्रेणीकी अपेक्षा प्रदेशाग्र कहे गए हैं। क्रोधकी जघन्य वर्गणासे उसकी उत्कृष्ट वर्गणामे प्रदेशाग्र विशेष हीन अर्थात् अनन्तवें भागसे हीन है ॥७८४-७८६॥
चूर्णिसू०-अब इससे आगे पाँचवीं भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ॥७८७-७८८॥
क्रोधसंज्वलनकी कृष्टिके विषयमें जो यह क्रम कहा गया है, वही क्रम नियमसे मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और लोभसंज्वलनकी कृष्टि में भी प्रत्येकका है, ऐसा जानना चाहिए ॥१७४॥
चूर्णिस०-अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है-जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनमे चौथी भाष्यगाथाकी विभाषा की है, उसी प्रकार मान, माया और लोभसंज्वलनमे भी करना चाहिए । वह इस प्रकार जानना चाहिए-मानकषायका उत्तरपद मानकपायकी आदिवर्गणामेसे घटाना चाहिए। जो शेष अनन्तवॉ भाग बचता है वह नियमसे मानकी जघन्य वर्गणाके प्रदेशाग्रमे अधिक है। इसी प्रकार मायासंज्वलन और लोभसंज्वलनका उत्तरपद उनकी आदिवर्गणामेसे घटाना चाहिए। जो शेप अनन्तवॉ भाग अवशिष्ट रहे, वह नियमसे उनकी जघन्य वर्गणाके प्रदेशाग्रमे अधिक है ॥७८९-७९३॥
इस प्रकार पॉच भाष्यगाथाओके द्वारा मूलगाथाके 'किट्टी च पदेसग्गेण' इस प्रथम पदका अर्थ समाप्त हुआ।
चूर्णिसू०-मूलगाथाके 'अणुभागग्गेण' इस द्वितीय पदके अर्थमे एक भाप्यगाथा है, वह इस प्रकार है ।।७९४-७९५॥