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कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार थोवो । ८३८. एकारसमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । ८३९. दसमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। ८४०. णवमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। ८४१. अट्ठमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । ८४२. सत्तमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। ८४३. छट्ठीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओं। ८४४. पंचमीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। ८४५. चउत्थीए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । ८४६. तदियाए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ। ८४७. विदियाए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । ८४८. पढमाए किट्टीए वेदगकालो विसेसाहिओ । ८४९. विसेसो संखेज्जदिभागो।
८५०. एत्तो चउत्थीए मूलगाहाए समुक्त्तिणा । ८५१. तं जहा । (१२९) कदिसु गदीसु भवेसु य द्विदि-अणुभागेसु वा कसाएसु ।
कम्माणि पुव्ववद्धाणि कदीसु किट्टीसु च द्विदीसु॥१८२॥ कम हैं । ग्यारहवी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। दशवीं कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । नवमी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । आठवीं कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । सातवीं कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । छठी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। पांचवीं कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । चौथी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है । तीसरी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। दूसरी कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। प्रथम कृष्टिका वेदककाल विशेष अधिक है। यहाँ सर्वत्र विशेषका प्रमाण ( स्वकृष्टि वेकककालके ) संख्यातवें भाग है, अर्थात् संख्यात आवली है ।। ८३६-८४९॥
विशेपार्थ-इन चूर्णिसूत्रोके द्वारा भाष्यगाथोक्त बारह कृष्टियोके वेदनकालका प्रमाण वताया गया है । गाथाके उत्तरार्धमें पठित 'तु' शब्दसे जयधवलाकारने अश्वकर्णकरणकाल, षण्णोकषायक्षपणकाल, स्त्रीवेदक्षपणकाल, नपुंसकवेदक्षपणकाल, अन्तरकरणकाल और अष्टकपायक्षपणकाल इनका भी अल्पवहुत्व बताया है । वह इस प्रकार है-क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिके वेदककालसे कृष्टिकरणका काल संख्यातगुणा है अर्थात् साधिक तिगुना है । कृष्टिकरणकालसे अश्वकरणकाल आदि शेष सब काल विशेप-विशेष अधिक हैं। केवल अन्तरकरणकालसे अष्टकषायक्षपणकाल संख्यातगुणा है।
___ चूर्णिसू०-अब इससे आगे चौथी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार है ॥८५०-८५१॥
कितनी गतियोंमें, भवोंमें, स्थितियोंमें, अनुभागोंमें और कपायोंमें पूर्वबद्ध कर्म कितनी कृष्टियोंमें और उनकी कितनी स्थितियोंमें पाये जाते हैं ? ॥१८२॥
विशेषार्थ-इस और इससे आगे कही जानेवाली दो और मूलगाथाओके द्वारा कृष्टिवेदकके गति आदि मार्गणाओमें पूर्वबद्ध कर्मोंका भजनीय-अभजनीयरूपसे अस्तित्व