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गा० १८१ ]
चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिवेदकक्रिया निरूपण
८२७. तो पंचमीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ८२८. तं जहा । (१२७) उदयादिसु द्विदीसु य जं कम्मं नियमसा दु तं हरस्सं ।
पविसदि क्खिण दु गुणेण गणणादियंतेण ॥ १८०॥
८२९. विहासा । ८३०. तं जहा । ८३१. जं अस्सि समए उदिष्णं पदेसग्गं तं थोवं । ८३२. से काले ट्ठिदिक्खएण उदयं पविसदि पदेसग्गं तमसंखेज्जगुणं । ८३३. एवं सव्वत्थ ।
८३४. एत्तो छडीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ८३५. तं जहा । (१२८) वेदकालो किट्टीय पच्छिमाए दु नियमसा हरस्सो । संखेज्जदिभागेण दु सेसग्गाणं कमेणऽधिगो ॥ १८९ ॥
८३६. विहासा । ८३७. पच्छिमकिट्टिमंतोमुहुत्तं वेदयदि तिस्से वेदगकालो प्रथम स्थिति के प्रथम समय में उदयं आनेवाले प्रदेशाय सबसे कम हैं और आगे-आगेके समयोंमें उदय आनेवाले प्रदेशाय असंख्यातगुणित है ।
चूर्णि सू० ० - अब इससे आगे पॉचवीं भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है || ८२७-८२८ ।।
उदयको आदि लेकर यथाक्रमसे अवस्थित प्रथमस्थितिकी अवयवस्थितियों में जो कर्मरूप द्रव्य है, वह नियमसे आगे आगे हस्व अर्थात् कम कम है । उदयस्थितिसे ऊपर अनन्तर स्थितिमें जो प्रदेशाग्र स्थिति के क्षय से प्रवेश करते हैं, वे असंख्यातगुणित रूपसे प्रवेश करते हैं ॥ १८० ॥
चूर्णि सू० [0 - उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है। वह इस प्रकार है - जो प्रदेशाग्र इस वर्तमान समयमे उदयको प्राप्त होता है, वह सबसे कम है । जो प्रदेशाय स्थिति के क्षयसे अनन्तर समयमें उदयको प्राप्त होगा, वह असंख्यातगुणा है । इसी प्रकार सर्वत्र अर्थात् कृष्टिवेदक-कालके सर्व समय में उदयको प्राप्त होनेवाले प्रदेशाग्रका अल्पबहुत्व जानना चाहिए ॥ ८२९-८३३॥
चूर्णिसू०. ० - अब इससे आगे छठी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है । वह इस प्रकार है ।।८३४-८३५ ॥
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पश्चिम कृष्टि अर्थात संज्वलन लोभकी सूक्ष्मसाम्परायिक नामवाली अन्तिम बारहवीं कृष्टिका वेदककाल नियमसे अल्प है, अर्थात् सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानका जितना काल है, वही वारहवी कृष्टिके वेदनका काल है । पश्चादानुपूर्वीसे शेष ग्यारह कृष्टियोंका वेदनकाल क्रमशः संख्यातवें भागसे अधिक है || १८१ ॥
चूर्णिम् ०० - अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है - (यद्यपि ) पश्चिम अर्थात् अन्तिम बारहवी कृष्टिको अन्तर्मुहूर्त तक वेदन करता है, ( तथापि ) उसका वेदककाल सबसे