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गा० १८३] चारित्रमोहक्षपक कृष्टिवेदक-निरूपण
८५२. एदिस्से तिणि भासगाहाओ । ८५३. तं जहा। (१३०) दोसु गदीसु अभजाणि दोसु भजाणि पुव्वबद्धाणि ।
एइंदिय कायेसु च पंचसु भजा ण च तसेसु ॥१८३॥
८५४. विहासा । ८५५. एदस्स खवगस्स दुगदिसमज्जिदं कम्मं णियमा अस्थि । तं जहा-तिरिक्खगदिसमज्जिदं च मणुसगदिसमज्जिदं च । ८५६. देवगदिसमज्जिदं च णिरयगदिसमज्जिदं च भजियव्वं । ८५७. पुड चिकाइय-आउकाइय-तेउकाइयवाउकाइय-वणप्फदिकाइएसु एत्तो एकेकेण काएण समज्जिदं भजियव्वं । ८५८. तसकाइयं समज्जिदं णियमा अस्थि । अन्वेषण किया गया है। प्रस्तुत गाथामें गति, इन्द्रिय, काय और कषायमार्गणामे उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट स्थिति-अनुभाग-संयुक्त संचित पूर्वबद्ध कर्मोंके संभव-असंभवताका निर्णय करनेके लिए प्रश्न उपस्थित किये गये हैं, जिनका कि उत्तर आगे कही जानेवाली तीन भाष्यगाथाओके द्वारा दिया जायगा। गाथा-पठित 'गति' पदसे गतिमार्गणा ग्रहण की गई है। 'भव' पदसे इन्द्रिय और कायमार्गणा सूचित की गई है, क्योकि भव एकेन्द्रियादि जाति और स्थावरादिकायरूप ही होता है । 'कषाय' पदसे कषायमार्गणाका ग्रहण किया गया है। इस प्रकार समग्र गाथाका यह अर्थ निकलता है कि गति आदि मार्गणाओमें संचित पूर्वबद्ध कर्म किन-किन कृष्टियोंमे और उनकी किन-किन स्थितियोमे संभव है और किन-किनमे नहीं ? इसका स्पष्टीकरण आगे कही जानेवाली भाष्यगाथाओमें किया गया है ।
चूर्णिसू०-उपयुक्त मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली तीन भाष्यगाथाएँ हैं । वे इस प्रकार हैं ।।८५२-८५३॥
पूर्वबद्ध कर्म दो गतियोंमें अभजनीय है और दो गतियोंमें भजनीय हैं। तथा एक एकेन्द्रियजाति और पाँच स्थावरकायोंमें भजनीय हैं, शेष चार जातियोंमें और त्रसकायमें भजनीय नहीं हैं ॥१८३॥
चर्णिसू०-अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा की जाती है-इस कृष्टिवेदक क्षपकके दो गतियोमे समुपार्जित कर्म नियमसे होता है । वह इस प्रकार है-तिर्यग्गतिसमुपार्जित कर्म भी है और मनुष्यगति समुपार्जित कर्म भी है। देवगतिसमुपार्जित और नरकगतिसमुपानित कर्म भजितव्य है। पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तैजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक इन पाँचोमेंसे एक-एक कायके साथ समुपार्जित कर्म भजितव्य है। बसकायिक समुपार्जित कर्म नियमसे पाया जाता है ॥८५४-८५८॥
विशेषार्थ-कृष्टिवेदक क्षपकके पूर्व भवमे तिर्यग्गति और मनुष्यगतिमे उत्पन्न होकर मॉधे हुए कर्मोंका अस्तित्व नियमसे रहता है, अतएव उनके संचयको संभव या असंभव की