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कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ७४२. उदयहिदीए पुण वेदिज्जमाणियाए संगहकिट्टीए जाओ किट्टीओ तासिमसंखेज्जा भागा। ७४३. सेसाणमवेदिज्जमाणिगाणं संगहकिट्टीणमेक्का किट्टी सव्वासु विदियहिदीसु पढमहिदीसुणन्थि । ७४४. एकेका किट्टी अणुभागेसु अणंतेसु । ७४५. जेसु पुण एका ण तेसु विदिया।
७४६. विदियाए भासगाहाए समुकित्तणा । (११५) सव्वाओ किट्टीओ विदियद्विदीए दु होति सव्विस्से ।
जं किटिं वेदयदे तिस्से अंसो च पढमाए ॥१६८॥ ___७४७. एदिस्से विहासा वुत्ता चेव पडमभासगाहाए । हैं। सूत्रमे जो ‘एक-एक कृष्टि' ऐसा कहा है उसका अभिप्राय यह है कि क्रोध संज्वलनकी जघन्य कृष्टि इन विवक्षित स्थितियोमें होती है । इसी प्रकार द्वितीय कृष्टि, तृतीय कृष्टिको आदि देकर अन्तिम कृष्टि तक प्रथम संग्रहकृष्टिकी सर्व अवयवकृष्टियाँ उन स्थितिविशेषों में होती हैं, जिनकी कि संख्या असंख्यात है ।
अब ऊपर 'उदयस्थितिको छोड़कर' ऐसा जो कहा है, उसका चूर्णिकार स्वयं ही स्पष्टीकरण करते हैं
चूर्णिम् ०-किन्तु उदयस्थितिमे वेद्यमान संग्रहकृष्टिकी जितनी अवयव-कृष्टियाँ हैं, उनका असंख्यात बहुभाग पाया जाता है । ( क्योकि, विवक्षित संग्रहकृष्टिके अधस्तनउपरिम असंख्यात एक भागप्रमाण अवयवकृष्टियोको छोड़कर मध्यवर्ती असंख्यात बहुभागप्रमाण कृष्टियोके रूपसे ही उदयानुभाग परिणमित होता है। ) शेप अवेद्यमान ग्यारहो संग्रहकृष्टियोकी एक-एक अवयवकृष्टि सर्व द्वितीयस्थितिसम्बन्धी अवान्तर-स्थितियोमे पाई जाती हैं, प्रथम स्थितिसम्बन्धी अवान्तर स्थितियोमे नही पाई जाती । ( इस प्रकार भाष्यगाथाके पूर्वार्धकी विभाषा करके अब उत्तरार्धकी विभाषा करते हैं- ) एक-एक संग्रहकृष्टि अथवा उनकी अवयवकृष्टि (नियमसे ) अनन्त अनुभागोमे रहती है । ( क्योकि, सर्व जघन्य भी कृष्टिमे सर्व जीवोसे अनन्तगुणित अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं । ) जिन अनन्त अनुभागोमें एक विवक्षित कृष्टि वर्तमान है, उनमे दूसरी अन्य कृष्टि नहीं रहती है। ( किन्तु वह उनसे भिन्न स्वभाववाले अनुभागोमे ही रहती है । ) ॥७४२-७४५ ।।
चूर्णिसू०-अब दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥७४६॥
सभी संग्रहकृष्टियाँ और उनकी अवयवकृष्टियाँ समस्त द्वितीयस्थितिमें होती हैं । किन्तु वह जिस कृष्टिका वेदन करता है, उसका अंश प्रथमस्थितिमें होता है । ( क्योंकि, अवेद्यमान कृष्टियोंका प्रथमस्थितिमे होना संभव नहीं है । ) ॥१६८॥
__ चूर्णिसू०-इस भाष्यगाथाकी विभाषा प्रथम भाष्यगाथाकी विभाषा करते हुए कही जा चुकी है। अर्थात् वेद्यमान संग्रहकृष्टिका अंश उदय-वयं सर्व स्थितियोमे अविशेषरूपसे पाया जा जाता है। किन्तु उदयस्थितिमें वेद्यमान कृष्टिके असंख्यात बहुभाग ही पाये जाते हैं ॥७४७॥