Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 920
________________ कसाय पाहुड सुन्त [१५ चारित्र मोह-क्षपणाधिकार ७५९. माणस पडमाए संगह किट्टीए पदेसग्गं थोवं । ७६० विदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६१. तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६२. विसेसो पलिदोवमरस असंखेज्जदिभागपडिभागो । ७६३. कोहस्स विदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६४ तदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६५. मायाए पढमसंगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६६. विदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६७. तदियाए संगह किट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । ७६८. ८१२ विशेषार्थ - क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिसे प्रथम संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाग्र तेरहगुणा कैसे संभव है, इसका स्पष्टीकरण यह है कि मोहनीयकर्मका सर्वप्रदेशरूप द्रव्य अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा ४९ कल्पित कीजिए | इसके दो भागोसे से असंख्यातवें भागसे अधिक एक भाग (२५) तो कपायरूप द्रव्य है और असंख्यातवें भागसे हीन शेष दूसरा भाग (२४) नोकषायरूप द्रव्य है । अब यहॉपर कषायरूप द्रव्य क्रोधादि चार कषायोकी बारह संग्रहकृष्टियो में विभाग करनेपर क्रोध प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य २ अंकप्रमाण रहता है जो कि मोहनीयकर्म के सकल (४९) द्रव्यकी अपेक्षा कुछ अधिक चौवीसवाँ भागप्रमाण है । प्रकृत कृष्टिकरणकालमे नोकषायोका सर्व द्रव्य भी संज्वलनक्रोधमें संक्रमित हो जाता है जो कि सर्व ही द्रव्य कृष्टि करनेवाले क्रोधी प्रथम संग्रहकृष्टिस्वरूपसे ही परिणत होकर अवस्थित रहता है । इसका कारण यह है कि वेदन की जानेवाली प्रथम संग्रहकृष्टिरूपसे ही उसके परिणमनका नियम है । इस प्रकार क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टि के प्रदेशाका स्वभाग ( २ ) इस नोकपायद्रव्य (२४) के साथ मिलकर ( २ + २४ = २६) क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिके दो अंकप्रमाण द्रव्यकी अपेक्षा तेरहगुणा ( २ x १३ = २६) सिद्ध हो जाता है । अतएव चूर्णिकारने उसे तेरहगुणा बतलाया है । इस प्रकार उपर्युक्त सूत्रसे सूचित स्वस्थान अल्पवहुत्व इस प्रकार जानना चाहिएक्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिमे प्रदेशाय सबसे कम है । तृतीय संग्रहकृष्टिमे विशेप अधिक हैं । क्रोधी तृतीय संग्रहकृष्टिसे ऊपर उसकी ही प्रथम संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाग्र संख्यातगुणित हैं । मानका स्वस्थान- अल्पबहुत्व इस प्रकार है-मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाय सबसे कम हैं । द्वितीय संग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक हैं। तृतीय संग्रहकृष्टिमे विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार माया और लोभसम्बन्धी स्वस्थान - अल्पबहुत्व जानना चाहिए । अब परस्थान- अल्पवहुत्व कहते हैं चूर्णिसू० - मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाय सबसे कम हैं । द्वितीय संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाय विशेष अधिक हैं । तृतीय संग्रहकृष्टिमे प्रदेशात्र विशेष अधिक हैं । यहाँ सर्वत्र विशेषका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागका प्रतिभागी है। मानकी तृतीय संग्रहकृष्टिसे क्रोधी द्वितीय संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाय विशेष अधिक हैं । इससे इसीकी तृतीय संग्रहकृप्टिमें प्रदेशाय विशेष अधिक हैं । क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिसे मायाकी प्रथम संग्रहकृष्ट प्रदेशाय विशेष अधिक हैं । द्वितीय संग्रहकृष्टिमें प्रदेशाय विशेष अधिक हैं । तृतीय संग्रहकृष्टि 1

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