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कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ३३१. एत्तो तदियमूलगाहा । ३३२. जहा। (८९) बंधो व संकमो वा उदयो वा तह पदेस-अणुभागे।
अधिगो समो व हीणो गुणेण किंवा विसेसेण ॥१४२॥
३३३. एदिस्से चत्तारि भासगाहाओ । ३३४. भासगाहा समुक्कित्तणा । समुक्कित्तिदाए व अत्थविभासं भणिस्सामो । ३३५. तं जहा । क्रोधको नही वेदन करते हुए और मानका वेदन करते हुए ही संक्रमण करता है । क्योंकि जब मानकषायके वेदनकालमे दो समय कम दो आवलीमात्र काल रह जाता है, उसके भीतर ऐसी ही प्रवृत्ति देखी जाती है। जैसा यह क्रम मानकषायके संक्रमण-प्रस्थापककी सन्धिमें नवकबद्ध समयप्रवद्धोके संक्रमणका कहा है, वैसा ही क्रम शेष कषायोंके भी संक्रमणप्रस्थापकोकी सन्धिके समय प्ररूपण करना चाहिए । इस प्रकार यह अर्थ निकलता है कि मानका वेदन करता हुआ क्रोधसंज्वलनके दो समय कम दो आवलीमात्र नवकवन्धका संक्रमण करता है । मायाका वेदन करता हुआ मानसंज्वलनके नवकवन्धका संक्रमण करता है
और लोभका वेदन करनेवाला मायासंज्वलनके नवकवन्धका संक्रमण करता है । इस प्रकार दूसरी मूलगाथाके तीनो अर्थोंमे प्रतिवद्ध ग्यारह भाष्यगाथाओकी विभाषा समाप्त होनेके साथ ही दूसरी मूलगाथाका अर्थ व्याख्यान भी सम्पन्न हो जाता है ।
चूर्णिसू०-अब इससे आगे तीसरी मूलगाथा अवतीर्ण होती है। वह इस प्रकार है ॥३३१-३३२॥
संक्रमण प्रस्थापकके अनुभाग और प्रदेश-सम्बन्धी वन्ध, उदय और संक्रमण परस्परमें क्या समान हैं, अथवा अधिक हैं, अथवा हीन हैं ? इसी प्रकार प्रदेशोंकी अपेक्षा वे संख्यात, असंख्यात या अनन्तगुणितरूप विशेपसे परस्पर हीन हैं, या अधिक हैं ? ॥१४३॥
विशेषार्थ-संक्रमण-प्रस्थापकके अनुभाग और प्रदेश-विषयक बन्ध, उदय और संक्रमण-सम्बन्धी अल्पवहुत्वका निरूपण करनेके लिए इस मूलगाथासूत्रका अवतार हुआ है। यह समस्त गाथा प्रश्नात्मक है । इसमे दो प्रकारकी पृच्छाएँ की गई हैं। प्रथम तो यह कि संक्रमण-प्रस्थापकके अनुभागसम्बन्धी वन्ध, उदय और संक्रमण परस्पर समान हैं, अथवा हीन या अधिक है। दूसरी पृच्छा प्रदेशवन्धके विषयमे की गई है कि उसी संक्रमण-प्रस्थापकके प्रदेशवन्ध-सम्बन्धी वन्ध, उद्य और संक्रमण परस्पर समान है या हीनाधिक ? तथा उनके प्रदेश भी परस्पर संख्यात, असंख्यात और अनन्तगुणित रूपसे हीन हैं, अथवा अधिक, अथवा कुछ विशेप अधिक हैं ? इन दोनों पृच्छाओका समाधान आगे भाष्यगाथाओंके द्वारा किया जायगा ।
चूर्णिसू०-इस तीसरी मूलगाथाकी चार भाष्यगाथाएँ हैं। उन भाप्यगाथाओका उच्चारण करना ही समुत्कीर्तना है। इस प्रकार उनकी समुत्कीर्तना करनेपर अर्थ-विभापा कहेंगे । वह इस प्रकार है ।।३३३-३३५।।