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गा० १६५ ]
चारित्रमोहक्षपक कृष्टिकरणक्रिया निरूपण
(१११) किट्टी करेदि णियमा ओवट्ट तो ठिदी य अणुभागे ।
व तो किट्टीए अकारगो होदि बोद्धव्व ॥ १६४ ||
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७१८. विहासा । ७१९. जहा । ७२०. जो किट्टीकारगो सो पदेसग्गं ठिदीहिं वा अणुभागेहिं वा ओकड्डदि, ण उक्कडदि । ७२१. खवगो किट्टीकारगप्पहूडि जाव कमो ताव ओकड्डगो पदेसग्गस्स, ण उकडगो । ७२२. उवसामगो पुण पढमसमयकिट्टीका र गमादि काढूण जाव चरिमसमयसकसायो ताव ओकड्डगो, ण पुण उक्कडगो । ७२३. पडिवदमानगो पुण पढमसमय सकसायप्पहुडि ओकड्डगो वि, उक्कडगो वि । ७२४. लक्खणमध किं च किट्टीए त्ति एत्थ एका भागाहा । ७२५, तिस्से समुत्तिणा ।
(११२) गुणसेढि अनंतगुणा लोभादी कोधपच्छिमपदादो । कम्मस्स य अणुभागे किट्टीए लक्खणं एदं ॥ १६५॥
चारों संज्वलनकषायकी स्थिति और अनुभागका नियमसे अपर्वतन करता हुआ ही कृष्टिको करता है । स्थिति और अनुभागका बढ़ानेवाला कृष्टिका अकारक होता है ऐसा नियम जानना चाहिए || १६४ ॥
चूर्णिसू० ० - इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं । वह इस प्रकार है - जो जीव कृष्टियोंका करनेवाला है, वह प्रदेशाग्र को स्थिति अथवा अनुभागकी अपेक्षा अपवर्तन या अपकर्षण ही करता है; उद्वर्तन या उत्कर्षण नही करता । कृष्टियोको करनेवाला क्षपक संयत कृष्टिकरणके प्रथम समयसे लेकर जब तक चरमसमयवर्ती संक्रामक है, तब तक मोहनीयकर्म के प्रदेशाग्र का अपकर्षक ही है, उत्कर्षक नहीं । अर्थात् जब तक वह एक समयअधिक आवलीवाला सूक्ष्मसाम्परायिक संयत है, तब तक अपवर्तना करणमे प्रवृत्त रहता है । किन्तु कृष्टियोंका करनेवाला उपशामक संयत कृष्टिकारक के प्रथम समयको आदि करके जब चरमसमयवर्ती सकपाय रहता है, तब तक वह अपकर्षक रहता है, उत्कर्षक नहीं रहता । किन्तु उपशम श्रेणीसे गिरनेवाला जीव प्रथमसमयवर्ती से सकषाय अर्थात् सूक्ष्मसाम्परायिक होनेके प्रथम समयसे लेकर नीचे सर्वत्र अपकर्षक भी है और उत्कर्पक भी ।। ७१८-७२३॥ भावार्थ - उपशमश्रेणी चढ़नेवाले जीवके कृष्टिकरणके प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय तक अपकर्षणकरण ही होता है, उत्कर्पणकरण नही होता । किन्तु गिरनेवाले जीवके सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम सममसे दोनो ही करण प्रवृत्त हो जाते हैं। चूर्णिसू० - 'कृष्टिका लक्षण क्या है' मूलगाथाके इस चौथे प्रश्नके अर्थरूपमे एक भाष्यगाथा निबद्ध है, अब यहॉपर उसकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥ ७२४-७२५॥
लोभकषायकी जघन्य कृष्टिको आदि लेकर क्रोधकषायकी सर्व पश्चिम पद