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गा० १६२)
चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिकरणक्रिया-निरूपण बझंति, ण वेदिज्जति । ६९३. पडमाएं संगहकिट्टीए हेह्रदो जाओ किट्टीओ ण वझंति, ण वेदिजंति, ताओ थोवाओ। ६९४. जाओ किट्टीओ वेदिज्जंति, ण बॉति ताओ विसेसाहियाओ। ६९५. तिस्से चेव पडमाए संगहकिट्टीए उवरि जाओ किट्टीओ ण बझंति, ण वेदिज्जति ताओ विसेसाहियाओ। ६९६. उवरि जाओ वेदिज्जति, ण बझंति ताओ विसेसाहियाओ। ६९७. मज्झे जाओ किट्टीओ वझंति च वेदिज्जति च ताओ असंखेज्जगुणाओ।
६९८. किट्टीवेदगद्धा ताव थवणिज्जा । ६९९. किट्टीकरणद्धाए ताव सुत्तफासो । ७००. तत्थ एक्कारस मूलगाहाओ । ७०१. पढमाए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । (१०९) केवदिया किट्टीओ कम्हि कसायम्हि कदि च किट्टीओ।
किट्टीए किं करणं लक्खणमध किं च किट्टीए ॥१६२॥
७०२. एदिस्से गाहाए चत्तारि अत्था । ७०३. तिण्णि भासगाहाओ । ७०४. पडमभासगाहा वेसु अत्थेसु णिवद्धा । तिस्से समुक्कित्तणा । दो संग्रहकृष्टियाँ न बंधती है और न उदयको प्राप्त होती हैं । प्रथम संग्रहकृष्टिकी अधस्तन जो कृष्टियाँ न बंधती है और न उदयको प्राप्त होती हैं, वे अल्प है। जो कृष्टियाँ उदयको प्राप्त होती हैं, किन्तु बंधती नही है, वे विशेष अधिक है । उस ही प्रथम संग्रहकृष्टिके ऊपर जो कृष्टियाँ न बंधती हैं और न उदयको प्राप्त होती है, वे विशेष अधिक हैं । इससे ऊपर जो उदयको प्राप्त होती हैं, परन्तु बंधती नहीं है, वे विशेष अधिक है। मध्यमें जो कृष्टियाँ बंधती हैं और उदयको प्राप्त होती है वे असंख्यातगुणी हैं ॥६८६-६९७॥
__ चूर्णिसू०-यहॉपर कृष्टिवेदक-कालको स्थगित रखना चाहिए । (क्योकि कृष्टिकरणकालसे प्रतिबद्ध गाथासूत्रोके अर्थका निरूपण किये विना उसका सम्यक् प्रकारसे विवेचन नही हो सकता ।) कृष्टिकरणकालमें पहले गाथा-सूत्रोके अर्थका स्पर्श करना चाहिए । इस विपयमे ग्यारह मूलगाथाएँ है । उनमेसे प्रथम मूलगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ॥६९८-७०१॥
कृष्टियाँ कितनी होती हैं, और किस कपायमें कितनी कृष्टियाँ होती हैं ? कृष्टि करनेमें कौनसा करण होता है और कृष्टिका लक्षण क्या है ? ॥१६२॥
चूर्णिसू०-इस गाथाके चार अर्थ हैं ॥७०२॥
विशेषार्थ-चारो कषायोकी समुदायरूपसे सर्व कृष्टियाँ कितनी हैं, यह प्रथम अर्थ है । पृथक्-पृथक् एक-एक कपायमे कितनी कृष्टियाँ होती हैं, यह दूसरा अर्थ है । कृष्टिकालमें उत्कर्षण-अपकर्षण आदि कौनसा करण होता है, यह तीसरा अर्थ है और कृष्टिका क्या लक्षण है, यह चौथा अर्थ है ॥
चूर्णिसू०-उपयुक्त मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली तीन भाप्यगाथाएँ हैं। उनमे प्रथम भाष्यगाथा दो अर्थोंमे निवद्ध है । उसकी समुत्कीर्तना करते हैं ॥७०३-७०४॥