________________
७७६
केसीय पाहुंड सुत्त [ १५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ३९४. विदियोए गाहाए समुकित्तणा । ३९५. जहा । उनमें निक्षेप तो एक समय कम आवलीका एक अधिक त्रिभागमात्र ही रहेगा, किन्तु अतिस्थापनाका प्रमाण पहलेसे एक समय अधिक हो जायगा । पुनः उसी दूसरी आवलीके तीसरे निषेकको अपकर्षण कर नीचे दिया, तब भी निक्षेपका प्रमाण वही रहेगा, किन्तु अतिस्थापना एक समय और अधिक हो जावेगी। पुनः उसी दूसरी आवलीके चौथे निपेकका अपकर्पण कर नीचे देनेपर भी निक्षेपका तो प्रमाण पूर्वोक्त ही रहेगा, किन्तु अतिस्थापनाका प्रमाण एक समय अधिक हो जायगा। इस प्रकार ऊपर-ऊपरके निपेकोको अपकर्षण कर नीचे देनेपर निक्षेपका प्रमाण तब तक वही रहेगा, जब तक कि अतिस्थापनाका प्रमाण एकएक समय बढ़ते हुए पूरा एक आवलीप्रमाण काल न हो जाय । जव अतिस्थापना आवलीप्रमाण हो जाती है, तब उससे ऊपर निक्षेपका ही प्रमाण एक एक समयकी अधिकतासे तब तक बढ़ता जाता है, जब तक कि उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त न हो जावे । चूर्णिकारने उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण प्रकृत प्रकरणमें उत्कृष्ट अतिस्थापनासे असंख्यातगुणा ही सामान्यरूपसे कहां है, पर जयधवलाकारने उसका प्रमाण एक समय अधिक दो आवलीसे हीन उत्कृष्ट कम स्थितिप्रमाण बतलाया है। एक समय अधिक दो आवलीसे हीन करनेका कारण यह है कि विवक्षित कर्मका बन्ध होनेके पश्चात् एक आवली तक तो उसकी उदीरणा हो नहीं सकती है, अतः वह एक अचलावलीकाल तो आबाधाकालरूप रहा। और अन्तिम आवली अतिस्थापनारूप है, अतः उसका भी द्रव्य अपकर्षण नहीं किया जा सकता । तथा अन्तिम निपेकका द्रव्य अपकर्पण कर नीचे निक्षिप्त किया ही जा रहा है, अतः उसे ग्रहण नहीं किया । इस. प्रकार एक समय अधिक दो आवलीसे हीन शेष समस्त उत्कृष्ट कर्मस्थितिमात्र उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण जानना चाहिए । यहाँ उत्कृष्ट कर्मस्थितिसे सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपमका ग्रहण न करके चालीस कोडाकोड़ी सागरका ही ग्रहण करना चाहिए, क्योकि चारित्रमोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति इतनी ही बतलाई गई है। और चारित्रमोहका क्षपण करनेवाला दर्शनमोहकी क्षपणा पूर्वमें ही कर चुका है, अतः उसके अपवर्तनाकी यहाँ संभावना ही नहीं है । जयधवलाकार कहते है कि यहाँ ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए कि - क्षपकश्रेणी-विषयक प्ररूपणा करते हुए संसारावस्थामें संभव यह उत्कृष्ट निक्षेपका प्ररूपण यहॉपर असंबद्ध है ? क्योंकि उत्कर्षणाके सम्बन्धसे उसका प्रसंगवश प्ररूपणा करनेमें कोई असंगति या दोप नहीं है । किन्तु यथार्थतः प्रस्तुत स्थलपर तो चारित्रमोहनीयकी अवशिष्ट प्रकृतियोकी नवक बन्धस्थिति तो अत्यन्त अल्प है ही, साथ ही सत्त्वस्थिति भी बहुत कम है। वह कितनी है, इसका प्रमाण यहाँ बतलाया नहीं गया है, तथापि प्रकृत प्रकरणके उक्त अल्पबहुत्वसे इतना स्पष्ट है कि उसकी प्रमाणं उत्कृष्ट अविस्थापनाकालसे जो कि पूर्ण आवलीप्रमाण है-असंख्यातगुणा है ।
चर्णिसू०-अव दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है। वह इस प्रकार है ॥३९४-३९५॥