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गा० १६१ । चारित्रमोहक्षपक-कृष्टिकरणक्रिया-निरूपण च अंतरमणंतगुणं । ६३५. माणस्स पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६३६. विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६३७. तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६३८. माणस्स कोहस्स च अंतरमणंतगुणं । ६३९. कोहस्स पहमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६४०. विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६४१. तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६४२ कोधस्स चरिमादो किट्टीदो लोभस्स अपुचफद्दयाणमादिवग्गणाए अंतरमणंतगुणं ।
६४३. पडमसमए किट्टीसु पदेसग्गस्स सेडिपरूवणं वत्तइस्सामो। ६४४. तं जहा । ६४५. लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं । ६४६. विदियाए किट्टीए विसेसहीणं । ६४७. एवमणंतरोवणिधाए विसेसहीणमणंतभागेण जाव कोहस्स चरिमकिट्टि त्ति । ६४८.परंपरोवणिधाए जहणियादो लोभकिट्टीदो उक्कस्सियाए कोधकिट्टीए पदेसग्गं विसेसहीणमणंतभागेण । ६४९. विदियसमए अण्णाओ अपुचाओ किट्टीओ करेदि पत्मसमये णिव्यत्तिदकिट्टीणमसंखेज्जदिभागमेत्ताओ । ६५०. एककिस्से संगहकिट्टीए हेट्ठा अपुवाओ किट्टीओ करेदि ।
६५१. विदियसमए दिज्जमाणयस्स पदेसग्गस्स सेहिपरूवणं वत्तइस्सामो । ६५२. तं जहा । ६५३. लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं दिज्जदि । ६५४. विदियाए किट्टीए विसेसहीणमणंतभागेण । ६५५. ताव अणंतभागहीणं जाव अपुव्वाणं अन्तर अनन्तगुणा है। मानका प्रथम संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इससे द्वितीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । इससे तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। मानका
और क्रोधका अन्तर अनन्तगुणा है। क्रोधका प्रथम संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इससे द्वितीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। इससे तृतीय संग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है। क्रोधकी अन्तिम कृष्टिसे लोभके अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणाका अन्तर अनन्तगुणा है ॥६२७-६४२॥
चूर्णिसू०-अव प्रथम समयमें निवृत्त हुई कृष्टियोंमे दिये जानेवाले प्रदेशाग्रकी श्रेणीप्ररूपणा कहेंगे । वह इस प्रकार है-लोभकी जघन्य कृष्टिमे प्रदेशात्र बहुत है। द्वितीय कृष्टिमें प्रदेशाग्र अनन्तवे भागसे विशेष हीन हैं । इस प्रकार अनन्तरोपनिधाके द्वारा अनन्तभागसे विशेष हीन प्रदेशाग्र क्रोधकी अन्तिम कृष्टि तक जानना चाहिए। परंपरोपनिधाके द्वारा जघन्य लोभकृष्टिसे उत्कृष्ट लोभकृष्टिके प्रदेशाग्र अनन्तवें भागसे विशेप हीन हैं। द्वितीय समयमे, प्रथम समयमे निवृत्त कृष्टियोके असंख्यातवें भागमात्र अन्य अपूर्व कृष्टियोको करता है। एक-एक संग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्व कृष्टियोंको करता है ॥६४३-६५०॥
चूर्णिसू०-अब द्वितीय समयमें दिये जानेवाले प्रदेशाग्रकी श्रेणीप्ररूपणा कहेगे । वह इस प्रकार है-लोभकी जघन्यकृष्टिमे प्रदेशाग्र बहुत दिया जाता है। द्वितीय कृष्टिमें विशेप हीन अर्थात् अनन्तवे भागसे हीन दिया जाता है। इस प्रकार तब तक अनन्तवे भागसे हीन दिया जाता है जब तक कि द्वितीय समयमे लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिके नीचे
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