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कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार ४६९. एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्त्तिणा।।
विशेषार्थ-उपयुक्त भाष्यगाथा उत्कर्पण-अपकर्षण-सम्बन्धी अल्पवहुत्वके प्रमाणका निर्देश करती है। इसका अभिप्राय यह है कि क्षपक या उपशामक जीवोंमें जिस किसी भी स्थितिविशेषका उत्कर्षण किया जानेवाला प्रदेशाग्र कम होता है और इससे अपकर्षण किया जानेवाला प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा होता है, क्योकि स्थिति-अपकर्षणके समय विशुद्धि प्रधान है, अर्थात् उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। अपकर्षण किये जानेवाले प्रदेशाग्रसे अवस्थानरूप रहनेवाला अर्थात् उत्कर्पण-अपकर्षणके विना स्वस्थानमें ही अवस्थित प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा होता है। इसका कारण यह है कि जिस किसी एक स्थितिके या नाना स्थितियोंके प्रदेशाग्रमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर एक भागप्रमाण प्रदेशाग्र तो उत्कर्षणको प्राप्त होते हैं और शेष बहुभाग प्रदेशोका अपकर्षण किया जाता है, अतः उनका असंख्यातगुणा होना स्वाभाविक ही है। किन्तु जिन स्वस्थान-स्थित असंख्यात वहुभाग-प्रमाण प्रदेशोका उत्कर्षण-अपकर्षण ही नहीं होता है और इसीलिए जिनकी 'अवस्थान' यह संज्ञा है, वे प्रदेशाग्र अपकर्षण किये जानेवाले प्रदेशाग्रसे भी असंख्यातगुणित होते हैं, अतः उन्हे इस अल्पबहुत्वमें असंख्यातगुणा वतलाया गया है। यह अल्पवहुत्व उपशामक या क्षपककी अपेक्षा कहा गया है। इससे नीचे संसारावस्थाके अर्थात् सातवें गुणस्थान तकके जीवोके उत्कर्पण-अपकर्षणसम्वन्धी अल्पबहुत्वमें भेद है । जो कि इस प्रकार है-अक्षपक या अनुपशामक जीवोके वृद्धि या उत्कर्षणकी अपेक्षा हानि या अपकर्षण कदाचित् तुल्य भी होता है, कदाचित् विशेष अधिक भी होता है और कदाचित् विशेष हीन भी हो सकता है। किन्तु अवस्थान असंख्यातगुणित ही होता है । इसका अभिप्राय यह है कि मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक सभी जीवोके एक या नाना स्थितिकी अपेक्षा प्रकृत अल्पबहुत्वके करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाग भागहारसे गृहीत प्रदेशाग्रका यदि संक्लेश-विशुद्धि-रहित मध्यम परिणाम कारण होता है तो नीचे या ऊपर निषिच्यमान उत्कर्षण-अपकर्षणरूप द्रव्य सदृश ही होता है, क्योकि उसमें विसशताका कोई कारण ही नहीं पाया जाता है। यदि परिणाम विशुद्ध होते हैं तो नीचे अपकर्षण किया जानेवाला द्रव्य अधिक होता है और ऊपर उत्कर्पण किया जानेवाला द्रव्य अल्प होता है। और यदि परिणाम संक्लिष्ट होते हैं, तो ऊपर निषिच्यमान द्रव्य बहुत होता है और नीचे अपकर्पण किये जानेवाला द्रव्य अल्प होता है। इसलिए यह कहा गया है कि वृद्धिसे हानि कदाचित् सहश भी पाई जाती है, कदाचित् विशेष अधिक और कदाचित् विशेष हीन भी। इसी प्रकारका क्रम हानिसे वृद्धिमें भी जानना चाहिए । यहॉपर वृद्धि या हानिके हीन या अधिकका प्रमाण असंख्यातभागमात्र ही जानना चाहिए । किन्तु अवस्थान नियमसे असंख्यातगुणा ही होता है; क्योकि, उसमें दूसरा प्रकार संभव ही नहीं है । हॉ, यहाँ इतना विशेष अवश्य है कि करण-परिणामोके अभिमुख जीवके अपकर्षणरूप किये जानेवाले द्रव्यसे उत्कर्पणरूप द्रव्य असंख्यातगुणा होता है । न चूर्णिस०-अव इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की जाती है ।।४६९।।