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कसाय पाहुड सुत
[१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार
. ४९८. पढसमए जाणि अपुव्वफद्दयाणि तत्थ पढमस्स फहयरस आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं थोवं । ४९९ विदियस्स फद्दयस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गमणंतभागुत्तरं । ५०० एवमणंतराणंतरेण गंतूण दुचरिमस्स फद्दयस्स आदिवग्गपाए अविभागपडिच्छेदादो चरिमस्त अपुच्चफद्दयस्स आदिवग्गणा विसेसाहिया अणंतभागेण ।
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विशेषार्थ - यहाँ यह शंका की गई है कि वह प्रथमसमयवर्ती अवेदी जीव पूर्वस्पर्धकोसे अपूर्वपर्धक कैसे बनाता है ? उसका समाधान इस प्रकार किया गया है कि उस क्षपकके उस समय जो डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्ध हैं और जो कि पूर्वस्पर्धको में यथायोग्य विभाग के अनुसार अवस्थित हैं, उन्हें उत्कर्षणापकर्षण भागहारके प्रतिभाग द्वारा असंख्यातवें भागका अपकर्षण कर, अपूर्वस्पर्धक बनाने के लिए ग्रहण करता है । पुनः उन्हें अनन्त गुणहानिके द्वारा हीन शक्तिवाले करके पूर्वस्पर्धको के प्रथम देशघाती स्पर्धकोके नीचे उनके अनन्तवें भागमें अपूर्वस्पर्धक बनाता है । इसका अभिप्राय यह है कि प्रथम देशघाती स्पर्धककी आदिवर्गणा में जितने अविभाग - प्रतिच्छेद होते हैं, उन अविभागप्रतिच्छेदोंके अनन्तवें भागमात्र ही अविभागप्रतिच्छेद सबसे अन्तिम अपूर्वस्पर्धककी अन्तिमवर्गणामें होते है । इस प्रकार से निर्वृत्त किये गये अपूर्वस्पर्धको का प्रमाण प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर के भीतर जितने स्पर्धक होते हैं उनके असंख्यातवें भागमात्र वतलाया गया है । पूर्वस्पर्धकोकी आदिवर्गणा एक एक वर्गणा-विशेषसे हीन होती हुई जिस स्थानपर दुगुण हीन होती है, उसे एक प्रदेशगुणहानि - स्थानान्तर कहते हैं
अब उपयुक्त अर्थके ही विशेष निर्णय करनेके लिए अल्पबहुत्व कहते हैंचूर्णिसू० ० - प्रथम समयमें जो अपूर्वस्पर्धक निर्वृत्त किये गये हैं उनमें प्रथम स्पर्धककी आदि वर्गणामे अविभाग- प्रतिच्छेदाय अल्प हैं । द्वितीय स्पर्धककी आदि वर्गणामे अविभाग प्रतिच्छेदाग्र अनन्त बहुभागसे अधिक हैं । इस प्रकार अनन्तर अनन्तररूपसे जाकर द्विचरम स्पर्धककी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोकी अपेक्षा चरम अपूर्वस्पर्धक की आदि वर्गणा अनन्त भागसे विशेष अधिक है ॥४९८-५०० ॥
विशेपार्थ- द्वितीय स्पर्धककी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे तृतीय स्पर्धक - की आदि वर्गणा अविभाग- प्रतिच्छेद अनन्त बहुभागसे अधिक होते हुए भी कुछ कम द्वितीय भागसे अधिक हैं, तृतीय स्पर्धककी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे चतुर्थ स्पर्धककी आदि वर्गणा के अविभागप्रतिच्छेद कुछ कम तृतीय भागसे अधिक हैं । इस प्रकार जब तक जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण स्पर्धकोकी अन्तिम स्पर्धकवर्गणा अपने अनन्तर नीचे स्पर्धक आदि वर्गणासे उत्कृष्ट संख्यातवें भागसे अधिक होकर संख्यात भागवृद्धिके अन्तको न प्राप्त हो जावे, तब तक इसी प्रकार चतुर्थ- पंचमादि भागाधिक क्रमसे से ले जाना चाहिए । इससे आगे जब तक आदिसे लेकर जघन्य परीतानन्तप्रमाण स्पर्धकों में अन्तिम