________________
७८२
कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार विसेसाहिओ। ४२९. ओकड्डणादो उक्कस्सगोणिक्खेवो विसेसाहिओ । ४३०. उक्कस्सयं हिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । ४३१. दो आवलियाओ समयुत्तराओ विसेसो ।
४३२. एत्तो सत्तमी मूलगाहा । ४३३. तं जहा । (१०४) द्विदि अणुभागे अंसे के के वड्ढदि के व हरस्सेदि ।
केसु अवधाणं वा गुणेण किं वा विसेसेण ॥१५७॥
४३४. एदिस्से चत्तारि भासगाहाओ । ४३५. तासि समुक्कित्तणा च विहासा च । ४३६. पढमभासगाहाए समुक्कित्तणा। (१०५) ओवट्टोदि द्विदिं पुण अधिगं हीणं च बंधसमगं वा ।
उक्कड्डदि बंधसमं हीणं अधिगं ण वड्ढदि ॥१५८॥ कि यहॉपर एक समय अधिक आवली-सहित उत्कृष्ट आवाधासे हीन चालीस कोडाकोड़ी सागरोपममात्र उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट निक्षेपरूपसे विवक्षित है। ) अपकर्पणविषयक उत्कृष्ट निक्षेप विशेष अधिक है। ( यहॉपर विशेषका प्रमाण संख्यात आवली है, क्योकि यहॉपर एक आवलीसे हीन उत्कृष्ट आवाधाका प्रवेश सम्मिलित हो जाता है । ) उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म विशेष अधिक है। वह विशेष एक समय अधिक दो आवलीप्रमाण है । ( क्योकि यहॉपर समयाधिक अतिस्थापनावलीके साथ वन्धावली भी सम्मिलित हो जाती है ।)॥४२१-४३१॥
इस प्रकार अपवर्तना-सम्बन्धी मूलगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई।
चूर्णिसू०-अब इससे आगे सातवीं मूलगाथा अवतरित होती है । वह इस प्रकार है ।।४३२-४३३॥
स्थिति और अनुभाग-सम्बन्धी कौन-कौन अंश अर्थात् कर्म-प्रदेशोंको बढ़ाता अथवा घटाता है ? अथवा किन-किन अंशोंमें अवस्थान करता है ? और यह वृद्धि, हानि और अवस्थान किस-किस गुणसे विशिष्ट होता है ? ॥१५७||
चूर्णिसू०-इस सातवीं मूलगाथाके अर्थका व्याख्यान करनेवाली चार भाष्यगाथाएँ हैं। अव उनकी समुत्कीर्तना और विभाषा की जाती है। उसमें प्रथम भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना इस प्रकार है ॥४३४-४३६॥
स्थितिका अपकर्षण करता हुआ कदाचित् अधिक स्थितिका भी अपकर्षण करता है, कदाचित् हीन स्थितिका भी, और कदाचित् बन्ध-समान स्थितिका भी । स्थितिका उत्कर्पण करता हुआ बन्ध-समान या बन्धसे अल्प स्थितिका ही उत्कर्षण करता है, किन्तु अधिक स्थितिको नहीं बढ़ाता है ॥१६८॥
१ का पुण ओवट्टणा णाम १ ट्ठिदि अणुमागदुवारण कम्मपदेसाणमोकड्हणा उकडणासहमाविणी ओवट्टणा त्ति भण्णदे । जयघ०