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. गा० १४०]
संक्रामक-विशेपक्रिया-निरूपण .. ३११. वेदादि त्ति विहासा । ३१२. णqसयवेदादी संछुहदि त्ति अत्थो । (८५) संहदि पुरिसवेदे इत्थीवेदं णबुसयं चेव ।
सत्तेव णोकसाये णियमा कोहम्हि संछुहदि ॥१३८॥
३१३. एदिस्से तदियाए गाहाए विहासा । ३१४. जहा । ३१५. इत्थीवेदं णqसयवेदं च पुरिसवेदे संछुहदि, ण अण्णत्थ । ३१६. सत्त णोकसाये कोधे संछुहदि, ण अण्णत्थ। (८६)कोहं च छुहइ माणे माणं मायाए णियमसा छुहइ । ___मायं च छुहइ लोहे पडिलोमो संकमो णत्थि ॥१३९॥
३१७. एदिस्से सुत्तपबंधो चेव विहासा । (८७) जो जम्हि संछुहंतो णियमा बंधसरिसम्हि संछुहइ ।
बंधण हीणदरगे अहिए वा संकमो णत्थि ॥१४०॥
चूर्णिसू०-उपर्युक्त गाथामे आये हुये 'वेदादि' इस पदकी विभाषा इस प्रकार है-नपुंसकवेदको आदि करके तेरह प्रकृतियाँको संक्रान्त करता है, अर्थात् पर-प्रकृतिरूपसे संक्रमण करता है ॥३११-३१२॥
अब उक्त अर्थको ही दो भाष्यगाथाओके द्वारा विशेष रूपसे स्पष्ट करते हैं
स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका नियमसे पुरुषवेदमें संक्रमण करता है । पुरुषवेद और हास्यादि छह, इन सात नोकषायोंका नियमसे संज्वलनक्रोधमें संक्रमण करता है ॥१३८॥
चूर्णिसू०-इस तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा इस प्रकार है-स्त्रीवेद और नपुंसकवेदको पुरुषवेदमें ही संक्रान्त करता है, अन्यत्र नहीं । सात नोकषायोको संज्वलनक्रोधमे ही संक्रान्त करता है, अन्यत्र नहीं ॥३१३-३१६॥
संज्वलनक्रोधको नियमसे संज्वलनमानमें संक्रान्त करता है, संज्वलनमानको संज्वलनमायामें संक्रान्त करता है, संज्वलनमायाको संज्वलनलोभमें संक्रान्त करता है। इस प्रकार उक्त तेरह प्रकृतियोंका आनुपूर्वी-संक्रमण जानना चाहिए। इनका प्रतिलोम अर्थात् विपरीतक्रमसे अथवा यद्वा-तद्वा क्रमसे संक्रमण नहीं होता है।।१३९॥
___ चूर्णिसू०-इस भाष्यगाथाकी विभाषा सूत्र-प्रबन्ध ही है, अर्थात् गाथासूत्र इतना सरल और स्पष्ट है कि उसके विषयमें अन्य कुछ वक्तव्य शेष नही है ॥३१७॥
___ अव मूलगाथाके तीसरे अर्थक विषयमें ही कुछ अन्य विशेषताको बतलानेके लिए पांचवी भाष्यगाथाका अवतार करते हैं
जो जीव जिस वध्यमान प्रकृतिमें संक्रमण करता है, वह नियमसे वन्ध-सदृश प्रकृतिमें ही संक्रमण करता है; अथवा बन्धकी अपेक्षा हीनतर स्थितिवाली प्रकृतिमें संक्रमण करता है । किन्तु अधिक स्थितिवाली प्रकृतिमें संक्रमण नहीं होता ॥१४०॥