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कसाय पाछुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार च । ३०२. विदियाए मूलणाहाए विदियो अत्थो समत्तो भवदि ।
३०३. तदिये अत्थे छठभासगाहाओ। (८३) सव्वस्स मोहणीयस्स आणुपुव्वीय संकमो होदि।
लोभकसाये णियमा असंकमो होइ णायवो ॥१३६॥
३०४. विहासा । ३०५. तं जहा । ३०६. अंतरदुसमयकदप्पहुडि मोहणीयस्स आणुपुब्बीसंकमो । ३०७. आणुपुव्वीसंकमो णाम किं ? ३०८. कोह-माण-माया-लोभा एसा परिवाडी आणुपुचीसंकमो णाम । ३०९. एस अत्थो चउत्थीए भासगाहाए भणिहिदि । ३१०. एत्तो विदियभासगाहा । (८४) संकामगो च कोधं माणं मायं तहेव लोभं च ।।
सव्वं जहाणुपुवी वेदादी संछुहदि कम्मं ॥१३७॥ प्रस्थापक जीव भजितव्य है। इस प्रकार इस दूसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करनेपर दूसरी मूलगाथाका दूसरा अर्थ समाप्त होता है ।।२९५-३०२।।
चूर्णिसू०-दूसरी मूलगाथाके तीसरे अर्थमे छह भाष्यगाथाएँ निवद्ध है ॥३०३॥ उनमेसे प्रथम भाष्यगाथाकी विभाषा करनेके लिए उसका अवतार किया जाता है
मोहनीय कर्मकी सर्व प्रकृतियोंका आनुपूर्वीसे संक्रमण होता है, किन्तु लोभकपायका संक्रमण नहीं होता है, ऐसा नियमसे जानना चाहिए ॥१३६॥
चूर्णिसू०-अव उक्त गाथाकी विभाषा करते हैं। वह इस प्रकार है-संक्रमण-प्रस्थापकके अन्तरकरणके दूसरे समयसे लेकर आगे मोहकर्मका सर्वथा विनाश होने तक उसका आनुपूर्वीसंक्रमण होता है ॥३०४-३०६॥
शंका-आनुपूर्वीसंक्रमण नाम किसका है ? ॥३०७॥
समाधान-क्रोध, मान, माया और लोभ इस परिपाटीसे संक्रमण होना आनुपूर्वीसंक्रमण कहलाता है । आनुपूर्वीसंक्रमणका यह अर्थ चौथी भाष्यगाथामे कहंगे॥३०८-३०९।। . चूर्णिम् ०-अव इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाका अवतार करते हैं ॥३१०॥
नव नोकषाय और चार संज्वलन इन तेरह प्रकृतियोंका संक्रमण करनेवाला तपक नपुंसकवेदको आदि करके क्रोध, मान, माया और लोभ, इन सब कर्माको यथानुपूर्वीसे संक्रान्त करता है ॥१३७॥
विशेषार्थ-उक्त तेरह प्रकृतियोका संक्रम करनेवाला जीव सबसे सबसे पहले नपुं. सकवेद और स्त्रीवेदका पुरुपवेदमें संक्रमण करता है। पुनः पुरुषवेद और हास्यादि छहका क्रोधसंज्वलनमें संक्रमण करता है । तदनन्तर क्रोधसंज्वलनका मानसंज्वलनमें, मानसंज्वलनका मायासंज्वलनमें और मायासंज्वलनका लोभसंज्वलनमें संक्रमण करता है। यहाँ संक्रमणसे परप्रकृतिरूप संक्रमणका अभिप्राय है।