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गा० १२९ ]
संक्रामक स्थितिसत्त्व-निरूपण
(७५) अथ थी गिद्ध कम्मं णिहाणिद्दा य पयलपयला य । तह णिरय - तिरियणामा झीणा संछोहणादीसु ॥ १२८ ॥ २६९ दाणि कम्पाणि पुव्वमेव झीणाणि । एदेणेव सूचिदा अट्ठ वि कसाया पुव्वमेव खविदा ति ।
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(७६) संकंत म्हि य नियमा णामा-गोदाणि वेयणीयं च ।
वस्से असंखेज्जेस से सगा होंति संखेज्जे ॥ १२९॥
२७०. एसा गाहा छ कम्मेसु परमसमय संकंतेसु तहि समये द्विदिसंतकम्मपमाणं भणइ ।
अर्थात् अन्तरकरण के अनन्तर द्वितीय समय में उत्पन्न होनेवाली विशुद्धिसे जो अधिक से अधिक उत्कृष्ट अनुभाग हो सकता है, उसे ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा समाप्त हो जाती है ।
अब मूलगाथाके 'संकतं वा असंकंतं' इस चतुर्थ चरणकी विशेष व्याख्या करनेके for ग्रन्थकार चौथी भाष्यगाथाका अवतार कहते हैं
अथ अर्थात् आठ मध्यम कषायोंकी क्षपणाके पश्चात् स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा और प्रचलाप्रचला, तथा नरकगति और तिर्यग्गति-सम्बन्धी नामकर्मकी तेरह प्रकृतियॉ, इस प्रकार ये सोलह प्रकृतियाँ संक्रमण प्रस्थापकके द्वारा अन्तर्मुहूर्त पूर्व ही सर्व - संक्रमण आदिमें क्षीण की जा चुकी हैं ॥ १२८ ॥
चूर्णिसू०--ये स्त्यानगृद्धि आदि सोलह कर्म संक्रामकके द्वारा पहले ही नष्ट दिये गये है । गाथामे आये हुये 'अथ' इस पदके द्वारा सूचित आठ मध्यम कषाय भी पहले ही अर्थात् उक्त सोलह प्रकृतियो के क्षीण होनेके पूर्व ही क्षय कर दिये गये, ऐसा जानना चाहिए ॥ २६९॥
मूलगाथाके उक्त - चतुर्थ चरणका अवलम्बन करके इस समय होनेवाले स्थितिसत्त्वका प्रमाण-निर्धारण करनेके लिए पॉचवीं भाष्यगाथाका अवतार करते है -
हास्यादि छह नोकषायके पुरुषवेदके चिरंतन सत्त्वके साथ संक्रामक होनेपर नियमसे नाम, गोत्र और वेदनीय ये तीनों ही अघातिया कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण अपने-अपने स्थितिसत्त्वमें प्रवृत्त होते हैं । शेष ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्म संख्यातवर्षप्रमाण स्थिति सत्त्ववाले होते हैं ॥१२९॥
चूर्णिसू ं - यह गाथा हास्यादि छह कर्मों के प्रथम समय संक्रान्त होनेपर उस कालमे स्थितिसत्त्वके प्रमाणको कहती है, अर्थात् उस समय मोह विना तीन अघातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्ष और घातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यात वर्षप्रमाण होता है || २७०॥
१ सछोहणा नाम परपयडिसकमो सव्वसकमपज्जवसाणो । आदिसद्देणहिदि- अणुभागखडय-गुणसेटिणिजराण गहण कायव्व । जयघ