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कसा पाहुडे सुत
[१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार
२५५. अस्सकण्णकरणं ताव थवणिज्जं । इमो ताव सुत्तफासो । २५६. अंतरदुसमयकदमादि काढूण जाव छण्णोकसायाणं चरिमसमयसंकामगो त्ति एदिस्से अद्धाए अप्पा तिकट्टु सुतं । २५७. तत्थ सत्त मूलगाहाओं ।
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(७१) संकामयपट्टवगस्स किंट्ठिदियाणि पुव्ववद्धाणि ।
केसु व अणुभागे य संकेतं वा असंकेतं ॥ १२४ ॥
चूर्णिसू० - इस समय अश्वकर्णकरणको स्थगित रखना चाहिए और इस गाथासूत्र - का स्पर्श करना चाहिए । द्विसमयकृत - अन्तरको आदि करके जब तक छह नोकपायोका चरम - समयवर्ती संक्रामक है, इस मध्यवर्ती कालमें आत्मा विशुद्धिको प्राप्त होता है, इत्यादि गाथा - सूत्रको निरुद्ध करके वक्ष्यमाण गाथा- सूत्रोंका अनुमार्गण करना चाहिए इस विषय मे सात मूलगाथाएँ हैं ।। २५५-२५७॥
विशेषार्थ - जो प्रश्नमात्रके द्वारा अनेक अर्थोकी सूचना करती हैं, ऐसी सूत्रगाथा - मूलगाथा कहते हैं ।
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संक्रमण प्रस्थापकके पूर्वबद्ध कर्म किस स्थितिवाले हैं ? वे किस अनुभागमें वर्तमान हैं और उस समय कौन कर्म संक्रान्त हैं और कौन कर्म असंक्रान्त हैं ॥ १२४ ॥ विशेषार्थ - अन्तरकरण समाप्त करके नोकषायोके क्षपणको प्रारम्भ करनेवाला जीव संक्रमण-प्रस्थापक कहलाता है । उसके पूर्वबद्ध कर्म किस स्थितिवाले है ? अर्थात् उनका स्थितिसत्त्व संख्यात वर्प है या असंख्यात वर्षं है ? गाथाके इस पूर्वार्ध द्वारा संक्रमण - प्रस्थापकके स्थितिसत्त्व जानने की सूचना की गई है । उस संक्रमण - प्रस्थापकके शुभ-अशुभ कर्मोंका स्थितिसत्त्व किस-किस अनुभागमें वर्तमान है ? इस दूसरे पदके द्वारा उसके कर्मों के अनुभागकी सूचना की गई है। कौन कर्म संक्रान्त अर्थात् क्षय कर दिया गया है और कौन कर्म असंक्रान्त अर्थात् क्षय नहीं किया गया है ? इस तीसरे प्रश्नके द्वारा संक्रमणप्रस्थापकके क्षपित और अक्षपित कर्मों के जाननेकी सूचना की गई है। इन प्रश्नका उत्तर आगे भाष्यगाथाओं के द्वारा दिया जायगा ।
क्रमेण हीयमानस्वरूपो दृश्यते, तथेदमपि करणं क्रोधसज्वलनात्प्रभृत्या लोभसज्वलनाद्यथाक्रममनन्त गुणहीनानुभागस्पर्धकसस्थानव्यवस्थाकरणमश्वकर्णकरणमिति लक्ष्यते । सपदि आदोलन करणसण्णाए अत्थो वुच्चदे - आदोल णाम हिंदोलमादोलमिवकरणमा दोलकरणं । यथा हिंदोलत्थंभस्स वरत्ताए च अतराले तिकोण होण कण्णायारेण दीसइ, एवमेत्थ वि कोहादिसंजलणाणमनुभागसणिवेसो कमेण हीयमाणो दीसह त्ति एदेण कारणेण अस्सकण्णकरणस्स आदोलकरणसण्णा जादा । एवमोवट्टण उव्वण करणेत्ति एसो विपज्जायसद्दो अणुगयो दट्ठव्वो, कोहादिसजणाण मणुभागविण्णा सरस हाणिवड्ढिसरूवेणावट्ठाण पेक्खियूण तत्थ ओणुव्वणसण्णा पुव्वाइरिएहिं पयट्टिदत्तादो | जयध०
१ मूलगाहाओ णाम सुत्तगाहाओ पुच्छामेत्तेण सूचिदाणे गत्थाओ । जयघ०