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कसाय पाहुड सुप्त [ १४ चारित्रमोह-उपशमनाधिकार वेदसम्माहट्टी अणंताणुबंधी अविसंजोएदूण कसाए उवसामेदु णो उबट्ठादि । ५. सो ताव पुत्रमेव अर्णताणुबंधी विसंजोएदि । ६. तदो अणंताणुवंधी विसंजोएंतस्स जाणि करणाणि ताणि सव्वाणि परुवेयव्वाणि । ७. तं जहा । ८. अधापवत्त करणमपुत्रकरणमणियद्विकरणं च । ९. अधापवत्तकरणे णत्थि विदिघादो [ अणुभागवादो ] वा गुणसेडी वा । [ गुणसंकमो वा ] १०. अपुव्यकरणे अत्थि विदिधादो अणुभागधादो गुणसेढी च गुणसंकमो वि । ११. अणियट्टिकरणे वि एदाणि चेव, अंतरकरणं णत्थि । १२. एसा ताव जो अतानुबंधी विसंजोएदि तस्स समासपरूवणा ।
१३. दो अनंताणुबंधी विसंजोइदे अंतोमुहुत्तमधापवत्तो जादो असाद- अरदिसोग - अजसगित्तियादीणि ताव कम्पाणि वंधदि । १४. तदो अंतोमुहुत्तेण दंसणमोहवसामेदि, तदो ( ताधे ) ण अंतरं । १५. तदो दंसणमोहणीयमुवसा में तस्स जाणि करणाणि पुव्यपरू विदाणि ताणि सव्वाणि इमस्स वि परुवेयवाणि । १६ तहा डिदिघादो अणुभाघादो गुणसेडी च अत्थि ।
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शेष कषायोके उपशम करनेके लिए प्रवृत्त नहीं हो सकता है । अतः वह प्रथम ही अनन्तानुवन्धीकषायका विसंयोजना करता है । अतएव अनन्तानुवन्धी कषायका विसंयोजन करनेवाले जीव जो करण होते हैं, वे सर्व करण प्ररूपण करना चाहिए । वे इस प्रकार हैंअधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । अधःप्रवृत्तकरणमे स्थितिघात [ अनुभागघात ] गुणश्रेणी और [गुणसंक्रमण ] नहीं हैं, किन्तु अपूर्वकरणमें स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण होते हैं । ये ही कार्य अनिवृत्तिकरण में भी होते हैं, किन्तु यहॉपर अन्तरकरण नहीं होता है । जो अनन्तानुवन्धी कपायका विसंयोजन करता है, उसकी यह संक्षेपसे प्ररूपणा है ॥ ३-१२॥
तत्पश्चात् अनन्तानुबन्धीकषायका विसंयोजन करनेपर अन्तर्मुहूर्तकाल तक अध:प्रवृत्तसंयत होता है, अर्थात्, संक्लेश और विशुद्धिके वशसे प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानोमे सहस्रो परिवर्तन करता है । तभी प्रमत्तसंयतावस्था में वह असातावेदनीय, अरति, शोक, अयशःकीर्ति तथा आदि पदसे सूचित अस्थिर और अशुभ इन छह प्रकृतियोको बाँधता है । तत्पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त के द्वारा दर्शनमोहनीयकर्मको उपशमाता है । इस समय उसके अन्तरकरण नहीं होता है । तदनन्तर दर्शनसोहनीयकर्मका उपशमन करनेवाले जीवके जो जो करणरूप कार्य- विशेष पहले प्ररूपण किये गये हैं, वे सर्व कार्य इसके भी प्ररूपण करना चाहिए | दर्शनमोहके उपशमनाके समान ही स्थितिघात, अनुभागघात और गुणश्रेणी भी होती है ॥ १३-१६ ॥
* ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'तदो ण अंतरं' इतने सूत्रांशको टीकामें सम्मिलित कर दिया गया है । ( देखो पृ० १८१२ ) ।
+ ताम्रपत्रवाली प्रतिमें 'पुव्वपरुविदाणि' पद सूत्र में नहीं है । किन्तु वह होना चाहिए; क्योंकि टीकासे उसकी पुष्टि प्रमाणित है । ( देखो पृ० १८१३) ।