Book Title: Kasaya Pahuda Sutta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 810
________________ ७०२ कसाव पाहुड सुत [ १४ चारित्र मोह-उपशामनाधिकार द्विदिवंघ सहस्सेहिं गदेहि तिस्से लोभस्स परमट्टिदीए अद्ध गदं । २४७. तदो अद्धस्स चरिमसमए लोहसंजलणस्स द्विदिबंधो दिवसपृधत्तं । २४८. सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो वस्ससहस्त्रपुधत्तं । २४९. ताथे पुण फद्दयगढ़ संतकम्मं । २५०. से काले विदिय-विभागस्स पढमसमए लोभसंजलणाणुभागसंतकम्मस्स जं जहण्णफद्दयं तस्स हेइदो अणुभागकिट्टीओ करेदि । २५१. तासिं पमाणमेवफ दयवग्गणाणमणंतभागो । २५२. पडमसमए बहुआओ किडीओ कदाओ से काले अपुन्याओ असंखेज्नगुणहोणाओ । एवं जाव विदियस्स विभागस्त चरिमसमओ चि असंखेज्जगुणहीणाओं । २५३. जं पदेसग्गं परमसमए किट्टीओ करेंतेण किट्टीसु णिक्खित्तं तं धांव से काले असंखेज्जगुणं । एवं जाब चरिमसमया त्ति असं सेजगुणं । २५४. पढमसमए जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं, विदियाए पदेसग्गं विसेसहीणं । एवं जाव चरिमाए किट्टीए पदेसग्गं तं विसेसहीणं । २५५ विदियसमए जहणियाए किट्टीए पढेसग्गमसखे जगुणं, विदियाए विसेसहीणं । एवं जाव अंधुक्कस्सियाए विसंस व्यतीत हो जाना है । उस अर्ध भागके अन्तिम समय में संज्वलनलोभका स्थितिबन्ध दिवसपृथक्त्व होता । तथा शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध सहस्र वर्षथक्त्व होता है । उस समय अनुभागसम्बन्धी सत्त्व स्पर्धकगत है । इससे आगे कृष्टिगत सत्त्व होता है ।। २४२-१४९ ॥ चूर्णिम्०- (० - तदनन्तर कालसे द्वितीय त्रिभागके प्रथम समय में संज्वलनलोभके अनुभागसत्त्वका जो जवन्य स्पर्धक है, उसके नीचे अनन्तगुणहानिरूपसे अपवर्तित कर अनुभागसम्बन्धी सूक्ष्म कृष्टियोको करता है । ( क्योकि उपशमश्रेणीमे वादरकृष्टियाँ नहीं होती हैं । ) उन अनुभागकृष्टियोका प्रमाण एक स्पर्धककी वर्गणाओंका अनन्तवा भाग है । प्रथम समयमे बहुत अनुभागकृटियों की जाती हैं । दूसरे समय में होनेवाली अपूर्व कृष्टियॉ असंख्यातगुणित हीन हैं । इस प्रकार द्वितीय त्रिभागके अन्तिम समय तक असंख्यातगुणी हीन होती जाती हैं । कृष्टियोको करते हुए प्रथम समय में जिस प्रदेशाग्रको कृष्टियों में निक्षिप्त करता है, वह सबसे कम है। इसके अनन्तरकालमें असंख्यातगुणित प्रदेशाय निक्षिप्त करता है । इस प्रकार से अन्तिम समय तक असंख्यातगुणित प्रदेशाको निक्षिप्त करता जाता है । प्रथम समयमें जघन्य कृष्टिमे बहुत प्रदेशायको देता है, उससे ऊपरकी द्वितीय कृष्टिमे विशेष हीन प्रदेशाग्रको देता है, इस प्रकार अन्तिम कृष्टि तक विशेष हीन प्रदेशाग्रको देता है । द्वितीय समय में जघन्य कृष्टिमे प्रदेशाम ( प्रथम समय में की गई प्रथम कृष्टिके प्रदेशाय से ) असंख्यातगुणित देता है, द्वितीय कृष्टिमे विशेष हीन देता है । इस प्रकार द्वितीय समय सम्बन्धी समस् कृष्टियोमें ओघ - उत्कृष्ट वर्गणा तक विशेष हीन देता है । [ तदनन्तर जघन्य स्पर्धककी आदि * ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इससे आगे 'अभवसिद्धिएर्हितो अनंतगुणं सिद्धाणंतभागवग्गणाहि पगं फडुयं होदि' इतना टीकाश भी सूत्ररूपसे मुद्रित है । ( देखो पृ० १८५९ )

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