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गा० १२३ ]
चारित्रमोहक्षपणा प्रस्थापक स्वरूप-निरूपण
७४.३
भागखंडयं परमट्ठिदिखंडयं च, जो च पढमसमए अपुव्वकरणे ट्ठिदिबंधो पवद्धो एदाणि तिणि विसमगं णिट्टिदाणि । ६३. एवं ट्ठिदिबंधसहस्सेहिं गदेहिं अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जदिभागे गये तदो विद्दा-पयलाणं बंधवोच्छेदो । ६४. ताघे चेव ताणि गुणसंकमेण संकति । ६५ तदो द्विदिबंध सहस्सेसु गदेसु परभवियणामाणं बंधवोच्छेदो जादो । ६६ तदो हिदिबंध सहस्सेसु गदेसु चरिमसमयअपुव्वकरणं पत्तो । ६७. से काले पढमसमयअणिट्टी जादो ।
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६८. पडमसमयअणियट्टिस्स आवासयाणि वत्तइस्लामो । ६९. तं जहा । ७०. परमसमयअणियट्टिस्स अण्णं द्विदिखंडयं पलिदोषमस्स संखेज्जदिभागो । ७१. अण्णमणुभागखंडयं सेसस्स अनंता भागा । ७२. अण्णो द्विदिबंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण होणो । ७३. पमट्ठिदिखंड यं विसमं जहण्णयादो उकस्सयं संखेज्जभागुत्तरं । ७४. पढमे ठिदिखंडये हदे सव्वस्त तुल्लकाले अणियविपविस्स डिदिसंतकम्पं तुल्लं द्विदिखंडयं पि सव्वस्स अणियपिस्सि विदियडिदिखंड यादी विदियडिदिखंड यं तुल्लं । तदोपहुडि तदियादो तदियं तुल्लं । ७५. द्विदिबंधी सागरोचय सहस्सअनुभागकांडकोंके व्यतीत होनेपर अन्य अनुभागकांडक, प्रथम स्थितिकांडक और जो अपूर्वकरणके प्रथम समयमे स्थितिबन्ध बांधा था वह, ये तीनो ही एक साथ समाप्त हो जाते हैं । इस प्रकार स्थितिबन्ध - सहस्रो के द्वारा अपूर्वकरणके कालका संख्यातवा भाग व्यतीत होनेपर निद्रा और प्रचलाका बन्धव्युच्छेद हो जाता है । उसी समय में ही वे दोनों प्रकृतियॉ गुणसंक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतियोमे संक्रमण करती है । तदनन्तर स्थितिबन्ध - सहस्रो व्यतीत होनेपर पर-भवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंकी बन्ध- व्युच्छित्ति हो जाती है । तदनन्तर स्थितिबन्धसहस्रोंके व्यतीत होनेपर अपूर्वकरणका चरम समय प्राप्त होता है । तदनन्तर कालमें वह प्रथम समयवर्ती अनिवृत्तिकरणसंयत हो जाता है ।।५७-६७ ।।
चूर्णिसू०-प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणसंयत के जो आवश्यक होते हैं, उन्हें कहते हैं । वे इस प्रकार हैं- अनिवृत्तिकरण के प्रथम समयमे पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण अन्य स्थितिकांडक होता है, अन्य अनुभागकांडक होता है, जो कि घातसे शेप रहे अनुभगके अनन्त बहुभागप्रमाण है । पल्योपमके संख्यातवे भागसे हीन अन्य स्थितिबन्ध होता है । ( अनिवृत्तिकरण के प्रथमसमयवर्ती नानाजीवोके परिणाम सदृश होते हुए भी ) प्रथम स्थितिकांडक विषम ही होता है और जघन्य प्रथम स्थितिकांडकसे उत्कृष्ट प्रथम स्थितिकांडक पल्योपमके संख्यातवे भागसे अधिक होता है ।। ६८-७३ ।।
चूर्णिसू० - प्रथम स्थितिकांडक के नष्ट होनेपर अनिवृत्तिकरणमे समानकालमे वर्तमान सब जीवोका स्थितिसत्त्व और स्थितिकांडक भी समान होता है । अनिवृत्तिकरणमे प्रविष्ट हुए सब जीवोका द्वितीय स्थितिकांडकसे द्वितीय स्थितिकांडक समान होता है, और उससे आगे तृतीय स्थितिकांडकसे तृतीय स्थितिकांडक समान होता है । ( यही क्रम आगे