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कसाय पाहुड सुत्त [१५ चारित्रमोह-क्षपणाधिकार पुधत्तमंतो सदमहस्सस्स । ७६. हिदिसंतकम्मं सागरोवमसदसहस्सपुधत्तमंतोकोडीए । ७७. गुणसेहिणिक्खेवो जो अपुव्वकरणे णिक्खेवो तस्स सेसे सेसे च भवदि । ७८, सव्वकम्माणं पि तिण्णि करणाणि वोच्छिण्णाणि । जहा-अप्पसत्थ उवसामणकरणं णिधत्तीकरणं णिकाचणाकरणं च । ७९. एदाणि सव्वाणि पढमसमयअणियट्टिस आवासयाणि परूविदाणि ।
८०. से काले एदाणि चेव । णवरि गुणसेढी असंखेज्जगुणा । सेसे सेसे च णिक्खेवो । विसोही च अणंतगुणा । ८१. एवं संखेज्जेसु द्विदिवंधसहस्सेसु गदेसु तदो अण्णो हिदिवंधो असण्णिहि दिवंधसमगो जादो । ८२ तदो संखेज्जेसु द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु चउरिदियहि दिबंधसमगो हिदिबंधो जादो। ८३. एवं तीइदियसमगो बीइंदियसमगो एइदियसमगो जादो । ८४. तदो एइंदिय-डिदिवंधसमगादो द्विदिवंधादो संखेज्जेसु द्विदिवंधसहस्सेसु गदेसु णामा-गोदाणं पलिदोवमहिदिगो बंधो जादो । ८५. ताधे णाणावरणीय-दसणावरणीय-वेदणीय-अंतराइयाणं दिवड्डपलिदोवमहिदिगो बंधो । ८६ मोहणीयस्स वेपलिदोवमट्ठिदिगो बंधो। ८७. ताधे द्विदिसंतकम्म सागरोवमसदसहस्सपुधत्तं ।
भी जानना चाहिए । ) अनिवृत्तिकरणमें स्थितिबन्ध सागरोपम-सहस्रपृथक्त्व अर्थात् लक्षसागरोपमके अन्तर्गत रहता है। स्थितिसत्त्व सागरोपम-शतसहस्रप्टथक्त्व अर्थात् अतःकोडी सागरोपम रहता है। गुणश्रेणीनिक्षेप, जो अपूर्वकरणमें निक्षेप था, उसके शेष शेषमें ही निक्षेप होता है । अनिवृत्तिकरणमे सभी कर्मोंके अप्रशस्तोपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरण, ये तीनों ही करण व्युच्छिन्न हो जाते है। ये सब प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणके आवश्यक कहे ॥७४-७९।।
चूर्णिसू०-तदनन्तर कालमे ये उपयुक्त ही आवश्यक होते हैं, विशेषता केवल यह है कि यहाँ गुणश्रेणी असंख्यातगुणी होती है। शेष शेषमे निक्षेप होता है। विशुद्धि भी अनन्तगुणी होती है। इस प्रकार संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर तव अन्य स्थितिबन्ध असंज्ञी जीवके स्थितिबन्धके सदृश होता है । पुनः संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर चतुरिन्द्रियके स्थितिवन्धके सदृश स्थितिबन्ध होता है । इस प्रकार क्रमशः त्रीन्द्रियके सदृश, द्वीन्द्रियके सदृश और एकेन्द्रियके सदृश स्थितिवन्ध होता है। तत्पश्चात् एकेन्द्रियके स्थितिवन्धके समान स्थितिवन्धसे संख्यात सहस्र स्थितिवन्धोके व्यतीत होनेपर नाम और गोत्र कर्मका पल्योपमकी स्थितिवाला बन्ध होता है। उसी समय ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मका डेढ़ पल्योपमप्रमाण स्थितिवन्ध होता है । मोहनीयका दो पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्ध होता है । उस समयमें सर्व कर्मोंका स्थितिसत्त्व सागरोपमशतसहस्रपृथक्त्व है ॥८०-८७॥