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गा० १२३ ]
चारित्र मोहक्षपक- विशेष क्रिया निरूपण
१२३. तदो संखेज्जेस ठिदिबंध सहस्सेसु गदेसु मोहणीयस्स वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ठिदिबंधो जादो । १२४ ताधे सव्वेसिं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ठिदिबंधो जादो । १२५. ताथे ठिदिसंतकम्मं सागरोवमसहस्स प्रधत्त मंतोसद सहस्सस्स । १२६. जाधे परमदाए मोहणीयस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ठिदिबंधो जादो, ता अप्पा बहुअं । १२७. णामा-गोदाणं ठिदिबंधो थोवो । १२८. चदुण्हं कम्माणं ठिदिबंध तु असंखेज्जगुणो । १२९. मोहणीयस्स ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो ।
१३० एदेण कमेण संखेज्जाणि ठिदिबंधसहस्साणि गदाणि । १३१. तदो जहि अण्णो ठिदिबंधो तम्हि एकसराहेण णामा-गोदाणं ठिदिबंधो थोवो । १३२. मोहणीयस्स ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । १३३. चउन्हं कम्माणं ठिदिबंधो तुल्लो असंखेज्जगुणो । १३४. एदेग कमेण संखेज्जाणि ठिदिबंध सहस्त्राणि गदाणि । तदो जम्हि to ठिदिबंध हि एकसराहेण मोहणीयस्स ठिदिबंधो थोवो । १३५. नामा- गोदाणं ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो । १३६. चउन्हें कम्माणं ठिदिबंधो तुल्लो असंखेज्जगुणो । १३७. एदेण कमेण संखेज्जाणि ठिदिबंधसहस्त्राणि गदाणि । तदो जम्हि अण्णो ठिदिबंधो तम्हि एकसराहेण मोहणीयस्स ठिदिबंधो थोवो । १३८. णामा-गोदाणं चूर्णि सू० [o - तत्पश्चात् संख्यात सहस्र स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर मोहनीयका भी पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण स्थितिबन्ध हो जाता है । उसी समय शेष सर्व कमका भी स्थितिबन्ध पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हो जाता है । उस समय सर्व कर्मोंका स्थितिसत्त्व सागरोपम-सहस्रपृथक्त्व है, जो कि सागरोपम - लक्षके अन्तर्गत है । जिस समय प्रथम वार मोहनीयका स्थितिबन्ध पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, उस समय अल्पबहुत्व इस प्रकार है- नाम और गोत्रका स्थितिबन्ध सबसे कम है। चार कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर समान और असंख्यातगुणा है । मोहनीय कर्मका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है ॥१२३-१२९॥
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चूर्णिसू० - इस क्रमसे संख्यात सहस्र स्थितिबन्ध व्यतीत होते है । तत्पश्चात् जिस समयमें अन्य प्रकारका स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है, उस समय में एक साथ नाम और गोत्रका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है । मोहनीयका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है । चार कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर समान और असंख्यातगुणा होता है । इस क्रमसे संख्यात सहस्र स्थितिबन्ध व्यतीत होते है । तत्पश्चात् जिस समयमे अन्य स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है, उस समयमे एक साथ ही मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे कम हो जाता है । नाम और गोत्रका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है और शेष चार कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणा होता है ॥१३०-१३६॥
चूर्णिसू० - इस उपयुक्त क्रमसे संख्यात सहस्र स्थितिबन्ध व्यतीत होते हैं । तत्पश्चात् जिस समयमे अन्य स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है, उस समय एक साथ मोहनीयका